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________________ 158...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में इस कारण पुनरुक्ति दोष नहीं आता है।56 जिणं- उपर्युक्त तीन गाथा में तीन बार और सम्पूर्ण लोगस्ससूत्र में पाँच बार जिन शब्द का प्रयोग सहेतुक प्रतीत होता है। यद्यपि इसका स्पष्ट बोध नहीं हो पाया है। तीसरा खंड- पाँचवीं गाथा में तीर्थंकर भगवन्तों को कर्म रूपी रज मैल से रहित, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के विजेता बताते हुए कहा है कि ऐसे परमाराध्य, जो मेरे द्वारा स्तुति किये गये हैं मुझ पर प्रसन्न होवें। पसीयंतु- प्रसाद युक्त होवो, प्रसन्न युक्त होवो। यह पद परमात्मा के अनुग्रह का सूचक है। वस्तुत: तीर्थंकर किसी पर न तो प्रसन्न होते हैं और न ही किसी से नाराज होते हैं, यह शाश्वत नियम है। फिर भी इस गाथा में अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए कहा है कि जिस प्रकार सूर्य की पहली किरण के साथ कमल का फूल खिल जाता है जैसे चिंतामणि रत्न से फल की प्राप्ति हो जाती है उसमें वस्तु स्वभाव ही कारण है। उसी प्रकार तीर्थंकरों के गुणानुवाद से आराधक को इष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है उसमें भगवान का स्वाभाविक सामर्थ्य कारण है। तदुपरान्त स्तुति आदि में तीर्थंकर भगवान प्रधान आलंबन रूप होने से आराधक की इष्ट प्राप्ति स्तोतव्य निमित्तक कहलाती है इसीलिए तीर्थकर भगवान को उद्देश करके अंत:करण के भाव पूर्वक की गई स्तुति आदि के द्वारा जो आराधक को अभिलषित फल की प्राप्ति होती है, उसमें प्रधान निमित्त तीर्थंकर भगवान है। इसी कारण आराधक की फल प्राप्ति को तीर्थंकर परमात्मा की प्रसन्नता या प्रसाद रूप कहा गया है। छठवीं गाथा में त्रियोगों को स्तुत्य क्रम से समायोजित कर कहा है कि कित्तिय- मैं सर्वप्रथम वचन योग (नामोच्चारण) पूर्वक आपका कीर्तन करता हूँ, तत्पश्चात वंदिय- काययोग से नमन करता हूँ और फिर महियामनोयोग से आदर-बहुमान करता हूँ क्योंकि आप लोक में उत्तम हैं। आरुग्ग....दितु- फिर तीर्थंकरों से आरोग्य (आत्म शान्ति), बोधिलाभ (सम्यक्ज्ञान) एवं श्रेष्ठ समाधि की अभिलाषा की गई है। __ इस गाथा में कित्तिय-वंदिय-महिया- तीनों महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। आवश्यक हारिभद्रीय टीका, ललित विस्तरा, चैत्यवंदन महाभाष्य, योगशास्त्र विवरण, देववन्दन भाष्य वगैरह ग्रन्थों में इनके किंचिद् भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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