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154... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
लिए सामर्थ्यगम्य हैं। गुणोत्कीर्त्तन रूप स्तुति स्वार्थ और परार्थ सम्पदा प्रदान करने वाली है। स्वार्थ सम्पदा से सम्पन्न व्यक्ति पदार्थ को साधने में समर्थ होता है। 43
आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचाशकप्रकरण षोड़शकप्रकरण, अष्टकप्रकरण, द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका प्रकरण आदि सभी में स्तव - स्तुति के अर्थ एवं उनके प्रकारादि का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इस विषयक आवश्यक चर्चा पूजा विधि के अन्तर्गत करेंगे।
चतुर्विंशतिस्तवः एक मार्मिक विश्लेषण
चतुर्विंशतिस्तव का प्रसिद्ध नाम लोगस्ससूत्र है। यह आत्म परिष्कार करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। षडावश्यक का पालन करने वाले साधकों के लिए मूलपाठ के साथ इसका भावार्थ एवं रहस्यार्थ ज्ञात करना भी परमावश्यक है। वह इस प्रकार है
लोगस्स पाठ
लोगस्स
उज्जो अगरे,
जिणे ।
केवली ।।1।।
धम्मतित्थयरे अरिहंते कित्तइस्सं, चवीसं पि उसभ मजिअं च वंदे, संभव मभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ।। 2 । । सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल - सिज्जंस- वासुपुज्जं च । विमल मणंतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥ 3 ।। कुंथुं अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च ।।4।। एवं मए अभिथुआ, विहुय - - रय- मला पहीण जर मरणा । चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे कित्तिय-वंदिय- महिया, जे ए लोगस्स आरूग्ग- बोहि-लाभं, समाहिवर चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।।7।। इस सूत्र में सात गाथाएँ तीन खंड में विभाजित है। प्रथम गाथा का पहला खंड सिलोग छंद में है और वह प्रतिज्ञा का निर्देश करता है। द्वितीय तृतीय और
fag 11611 पयासयरा ।
पसीयंतु । 15।।
उत्तमा सिद्धा ।
मुत्तमं