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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...153 स्तोत्र विविध छन्दों में और प्राकृत भाषा में होता है।39 किन्तु इसके अपवाद स्वरूप भक्तामर, कल्याणमंदिर आदि कुछ स्तोत्र संस्कृत भाषा में भी रचित हैं। अतः विवक्षा भेद से उक्त दोनों व्याख्याएँ सार्थक प्रतीत होती है। स्तव, स्तवन, संस्तवन, स्तुति, भक्ति, गुणोत्कीर्तन आदि शब्द लगभग समान अर्थ के बोधक हैं। यद्यपि वैयक्तिक रूप से गुणोत्कीर्तन करने को स्तुति और सामूहिक रूप से स्तवन करने को भक्ति कहा जाता है। भक्ति का क्षेत्र व्यापक है। स्तुति,प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, आराधना, सेवा आदि भक्ति के ही अनेक रूप हैं। वर्तमान में स्तवन, स्तुति एवं भक्ति शब्द अधिक प्रचलित हैं। परमार्थत: निज चेतना के शुद्ध रत्नत्रय रूप परिणामों को देखना स्तुति-भक्ति है। चारित्रसार में भी कहा गया है कि अपने शुद्धात्मा स्वरूप का अनुसंधान करना ही भक्ति है।40 इसके लिए अन्तरंग परिणामों की परम विशुद्धि आवश्यक है। सारत: तीर्थंकर पुरुषों का गुणोत्कीर्तन करते हुए स्वयं के शुद्धात्म स्वरूप का अन्वेषण करना, अवलोकन करना यही वास्तविक स्तुति है।
जैन विचारणा में स्तव-स्तुति शब्द एकार्थक होने पर भी इनके प्रकार भिन्न-भिन्न हैं। आवश्यकभाष्य में स्तव के दो प्रकार बतलाये हैं- 1. द्रव्यस्तव
और 2. भावस्तव।41 आचार्य भद्रबाह के अनुसार ईश्वर (धनपति), तलवार (राजा आदि), माडम्बिक (जलदुर्ग का अधिपति) शिव, इंद्र, स्कन्द और विष्णु की पूजा करना द्रव्यस्तव है तथा अरिहन्त, सिद्ध, केवली, आचार्य और साधु की पूजा करना भावस्तव है।42
दूसरी परिभाषा के अनुसार सात्त्विक वस्तुओं द्वारा तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है और भगवान के गुणों का स्मरण करना भावस्तव है। क्षायोपशमिक आदि प्रशस्त भावों में प्रवर्तमान व्यक्ति ही भाव पूजा कर सकता है।
जैन परम्परा का अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्रव्यस्तव के महत्त्व को स्वीकार नहीं करता है। मूलतः द्रव्यस्तव के पीछे ममत्व विसर्जन एवं अपरिग्रह सिद्धान्त को चरितार्थ करने का उद्देश्य रहा हआ है। द्रव्य पूजा का विधान केवल गृहस्थ उपासकों के लिए ही है, क्योंकि साधु निष्परिग्रही एवं अनासक्ति के मार्ग पर आरूढ़ होते हैं अत: उनके लिए भावस्तव ही मुख्य माना गया है।
नन्दी टीका में स्तुति के भी दो प्रकार कहे गये हैं- 1. प्रणाम रूप स्तुति और 2. असाधारण गुणोत्कीर्तन रूप स्तुति। प्रणाम रूप स्तुति सभी जीवों के