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152... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
जिस प्रकार अजकुल में पालित सिंह शावक वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार भक्ति उपासक तीर्थंकरों के स्तवन के द्वारा निज में जिनत्व की शोध कर लेता है, स्वयं में आवृत्त परमात्म शक्ति को प्रकट कर लेता है अतः अरिहंत परमात्मा का शुद्ध आलंबन मात्र ही पर्याप्त है।
जिस घर में गरूड़ पक्षी का निवास हो उस घर में साँप नहीं रह सकता। साँप गरुड़ की प्रतिच्छाया से भाग जाते हैं उसी तरह जिनके हृदय में तीर्थंकरों की स्तुति रूप गरुड़ आसीन है, वहाँ पर पाप रूपी साँप नहीं रह पाते। इस प्रकार कामना रहित, सदाशय युक्त एवं सम्यक् विधि पूर्वक किया गया तीर्थंकरों का स्मरण पाप पुंज को नष्ट कर देता है ।
स्तुति का स्वरूप एवं उसके प्रकार
लोगस्ससूत्र चौबीस तीर्थंकर का स्तव अथवा स्तुति रूप है। यह जीव जब तक शुक्ल ध्यान की भूमिका पर आरूढ़ नहीं हो जाता तथा शैलेशीकरण की अवस्था को उपलब्ध नहीं कर लेता तब तक पूज्य - पूजक अथवा आराध्यआराधक का विकल्प बना रहता है। साथ ही पूजक के हृदय में पूज्य प्रति गुणानुराग का भाव भी नियम से होता है। उस गुणानुराग को अभिव्यक्त करना पूजक (भक्त) का कृतज्ञ गुण है और वह सभी उपासकों के लिए अनिवार्य है। कृतज्ञता को प्रकट करने के अनेक मार्गों में स्तुति एक श्रेष्ठ और सरल मार्ग है। स्तव-स्तुति का सामान्य अर्थ है - भक्तिपूर्वक गुणोत्कीर्त्तन करना। उत्तराध्ययन टीकानुसार एक, दो या तीन श्लोक वाले गुणोत्कीर्त्तन को स्तुति और तीन से अधिक श्लोक वाले गुणोत्कीर्त्तन को स्तव कहा जाता है। किन्हीं के मतानुसार सात श्लोक तक के गुणोत्कीर्त्तन वाली स्तुति कहलाती है। 38
प्रचलित परिभाषा के अनुसार आराध्य के गुणों की प्रशंसा करना स्तुति है । लोक में अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा को स्तुति कहा जाता है, जबकि तीर्थंकर परमात्मा तो अनन्त गुण सम्पन्न होते हैं और उनके गुणों को अक्षरशः अभिव्यक्त करना भी असम्भव है इसलिए तीर्थंकर देव की प्रशंसा को ही स्तुति कहना उचित है। सामान्यतः स्तुति स्तोत्र द्वारा की जाती है क्योंकि स्तोत्र संस्तव रूप होता है। यद्यपि चैत्यवंदन महाभाष्य में स्तव और स्तोत्र में भेद बताते हुए कहा गया है कि स्तव गंभीर अर्थवाला और संस्कृत भाषा में निबद्ध होता है जबकि