SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...151 जिससे व्यक्तिगत उत्थान एवं समूह प्रबंधन में सहायता मिलती है। गुणग्राही दृष्टि साधक को सदैव सत्मार्ग पर आरोहित करती है। इस तरह भावों के उत्कर्ष एवं नियमन में सहायता प्राप्त होती हैं। इससे चारित्रिक एवं वैचारिक उच्चता भी प्राप्त होती है। पर दोष दर्शन की वृत्ति कम होने से तनाव समाप्त होते हैं अत: तनाव प्रबंधन में सहायता प्राप्त होती है। चतुर्विंशतिस्तव का उद्देश्य ___ यह सुस्पष्ट है कि जैन धर्म में आप्त पुरुष केवल निमित्त मात्र होते हैं, अन्तर्चेतना की जागृति में सहकारी साधन रूप होते हैं। स्वभावतया वे न किसी का अच्छा या बुरा करते हैं और न ही किसी से कुछ लेते-देते हैं। जैन-तीर्थंकर कृष्ण के समान यह उद्घोषणा भी नहीं करते कि तुम मेरी भक्ति करो मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूंगा।34 यद्यपि सूत्रकृतांगसूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि 'मैं भय से रक्षा करने वाला हूँ यह कथन पाठान्तर प्रतीत होता है क्योंकि इस तरह का उल्लेख जैन ग्रन्थों में प्राय: देखने को नहीं मिलता है।35 परमात्मा महावीर ने स्वयं कहा है कि एक जो मेरा नाम-स्मरण करता है और दूसरा सत्य मार्ग अर्थात मेरी आज्ञा का अनुसरण करता है उनमें मेरी आज्ञानुसार आचरण करने वाला ही यथार्थत: मेरी उपासना करता है। इस अंश से पूर्व कथन का सर्वथा निराकरण हो जाता है।36 सामान्यत: अर्हत् धर्म में तीर्थंकर भक्ति का लक्ष्य आत्म स्वरूप का बोध या साक्षात्कार करना और अपने में निहित परमात्म शक्ति को अभिव्यक्त करना है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण से युक्त होकर निर्वाणाभिमुख होना ही गृहस्थ और श्रमण की वास्तविक भक्ति है। मुक्तिपद को प्राप्त पुरुषों के गुणों का कीर्तन करना व्यावहारिक भक्ति है। रागद्वेष एवं सर्व विकल्पों का परिहार करके आत्मा को मोक्ष पथ में योजित करना वास्तविक भक्ति योग है। ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकर इसी भक्ति के द्वारा परम पद को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार भक्ति या स्तवन का मूल उद्देश्य आत्मबोध है।37 भक्ति के सच्चे स्वरूप का वर्णन करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी ने अजितनाथ स्तवन में कहा है अज-कुल गत केसरी लहे रे, निज पद सिंह निहाल । तिम प्रभु भक्ति भवी लहे रे, आतम शक्ति संभाल ।।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy