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150...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में है। इसके माध्यम से प्रत्येक आत्मा, परमात्म स्थिति ‘अप्पा सो परमाप्पा' को प्राप्त कर सकती हैं। यही आत्मा का सर्वोत्कृष्ट विकास है। इस दशा के प्रकट होने से पूर्व आत्मा में स्वभाव दशा धीरे-धीरे प्रकट होती है। जिससे व्यक्ति में आनंद रमणता, वैचारिक स्थिरता, दुर्भावों का परिमार्जन, क्रोधादि कषायों का निष्कासन होता है। गुण दर्शन एवं प्रभु कीर्तन से गुणों का अर्जन एवं प्रकटन होता है। जिससे व्यक्ति का आध्यात्मिक एवं वैचारिक विकास होता है और वह तीर्थंकरों के समान ही गंभीरता, शीतलता, मधुरता, उज्ज्वलता आदि से जीवन विकास के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करता है।
__वह समाज जहाँ उच्च आदर्शों का अनुकरण एवं स्तवन किया जाता है, उसमें मौलिक एवं नैतिक विकास अवश्यमेव होता है। चतुर्विंशतिस्तव की आवश्यकता सामाजिक स्तर पर देखी जाए तो यह जगत उपकारी परमात्मा का गुणानुवाद है। समाज में इससे गुणी एवं ज्ञानी जनों के बहुमान की परम्परा स्थापित होती है। सामाजिक सदमूल्यों का विकास एवं उनकी स्थापना होती है। उपकारी जनों के उपकार स्मरण एवं उनको सम्मान देने से समाज की सर्वत्र अच्छी छवि बनती है।
वर्तमान जगत विभिन्न प्रकार की समस्याओं से घिरा हुआ है। इन समस्याओं के समाधान में आज के भौतिक साधन पूर्ण रूपेण सक्षम नहीं है। चतुर्विंशतिस्तव समस्याओं के समाधान में अहम् भूमिका निभा सकता है। आज ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का दौर है, कोई किसी की बढ़ती नहीं देख सकता, हर कोई स्वयं को शिखर पर देखना चाहता है। इस आवश्यक के द्वारा परमात्मा के भव्य गुणों का स्तवन करते हुए साधक या भक्त स्वयं भगवान के समान बन जाता है अतः इसके द्वारा ईर्ष्या भाव की समाप्ति होती है। मन की आन्तरिक प्रसन्नता बढ़ती है। मानसिक तनाव शांत होते हैं। भावनाएँ शुद्ध विशुद्ध बनती है। दूसरों के प्रति सद्भाव रखने से उनके भी सद्भाव हमारे प्रति बढ़ते हैं और इससे फैल रहे सामाजिक वैमनस्य को शांत किया जा सकता है। विधेयात्मक शक्ति का सर्जन एवं निषेधात्मक भावों का विसर्जन होता है।
वर्तमान में Management या प्रबंधन का मूल्य बहुताधिक बढ़ गया है। किसी व्यक्ति को विकास पथ पर प्रगतिशील करना हो तो उसे सद्गुणों का स्मरण करवाते रहने से एक विधेयात्मक सोच एवं ऊर्जा का निर्माण होता है,