SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...149 हूँ। मुझे अथक पुरुषार्थ द्वारा वीतराग तुल्य बनने का प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह महापुरुषों का स्मरण हमारे अनादिकालीन मिथ्यात्व का छेदन और निज स्वरूप का बोध करने में केवल निमित्त मात्र बनता है। ___ जैन मान्यता के अनुसार तीर्थंकर तो साधना मार्ग के प्रकाश स्तम्भ हैं। जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है उसी प्रकार साधना की दिशा में आगे बढ़ना साधक का कार्य है जैसे प्रकाश स्तम्भ की उपस्थिति में भी जहाज बिना गति के समद्र के उस पार नहीं पहँच सकता है वैसे ही केवल नाम-स्मरण या भक्ति साधक को निर्वाण लाभ नहीं करा सकती,जब तक कि उसके लिए सम्यक प्रयत्न न हो। जो लोग विवेक शून्य प्रार्थनाओं के भरोसे परमात्मा को अपना भावी उद्धारक समझकर मोद मनाते रहते हैं और कभी भी सत्पुरुषार्थ के द्वारा सदाचरण के पथ पर अग्रसर नहीं होते, वे मानव भव रूपी अमूल्य रत्न को यों ही खो देते हैं। जैन विचारणा की दृष्टि से स्वयं पाप से मुक्त होने का प्रयत्न न करके केवल भगवान से मुक्ति की प्रार्थना करना सर्वथा निरर्थक है।32 जब मनुष्य अपने लिए आदर्श व्यक्ति में प्रतिफल की भावना रखता हुआ यह विश्वास करता है कि वह उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे पाप से उबार लेगा तो इस तरह की विपरीत निष्ठा से सदाचार की मान्यताओं को गहरा धक्का लगता है अतः प्रति साधक को किसी प्रकार की फलाकांक्षा एवं अपेक्षा रखे बिना तीर्थंकर पुरुषों का गुणगान करना चाहिए। परमार्थत: यही प्रार्थना है। भक्तिधारा की ओर उन्मुख हुए साधकों को यह भी भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि जैन दृष्टि में भगवत्स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तर चेतना को जागृत करने के लिए सहकारी साधन है, वह मानव मात्र के लिए आदर्श प्रदान कर प्रेरणा स्वरूप बनती है, किन्तु सदाचार के पथ पर हमें स्वयं को ही चलते हुए प्रबल पुरुषार्थी एवं आत्म जागरूक बनना होगा। तभी तीर्थंकरों की स्तुति से मोक्ष एवं समाधि की प्राप्ति होना संभव है। चूर्णिकार जिनदासगणि ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि तीर्थंकर देवों की स्तुति करने मात्र से मोक्ष एवं समाधि आदि की प्राप्ति नहीं होती है। इसके लिए तप एवं संयम की साधना में उद्यम करना भी अतीव आवश्यक है।33 आधुनिक परिप्रेक्ष्य में चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक की प्रासंगिकता चतुर्विंशतिस्तव एक भक्ति प्रधान सूत्र है। इस सूत्र के द्वारा गुण उत्कीर्तन करते हुए व्यक्तिगत विकास और मानसिक शांति को उपलब्ध किया जा सकता
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy