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148...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में जिस प्रकार एक बालक उसके मोहल्ले में खेलने वाले अनेक अन्य बालकों को देखकर अपने विचार के अनुसार जिस बालक को अच्छा समझता है, जिसके खेल को सही जानता है उसी का अनुसरण करने लगता है। जब बालक कुछ बड़ा होता है, पाठशाला जाता है वहाँ अपने सहपाठियों में से किसी एक-दो को आदर्श विद्यार्थी जानकर उसका अनुसरण करने लगता है। किंचित् समयानन्तर उस बालक के लिए अध्यापक आदर्श बन जाते हैं। यह मानव मन का स्वभाव है कि वह किसी मानसिक आदर्श के बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता है। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन मानसिक आदर्शों के प्रति ही गतिशील हैं और तो क्या, देह त्याग करते समय भी मनुष्य के जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही गति होती है- ऐसी लोकोक्ति है। एक संस्कृत कवि ने भी कहा है___'याद्दशी दृष्टिस्तादृशी सृष्टि' - मनुष्य की जैसी दृष्टि (सोच) होती है वैसी ही सृष्टि होती है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है इसी प्रकार उपासक भी तीर्थंकर भगवान को आदर्श रूप में स्वीकार करते हुए स्तुति करेगा तो निःसन्देह उसके पाप कर्मों के दलिक क्षीण होंगे और वह स्वयं केवलज्ञान रूपी अमन्द ज्योति से आलोकित हो उठेगा। बशर्ते, प्रत्येक व्यक्ति का आदर्श उत्तम एवं निर्दोष हो।30
प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैन विचारधारा में साधना के आदर्श के रूप में जिसकी स्तुति की जाती है उन महापुरुषों से किसी प्रकार के उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती। यह वैज्ञानिक धर्म है। उसमें काल्पनिक आदर्शों के लिए यत्किंचिद् भी स्थान नहीं है। जैन धर्म का विश्वास है कि तीर्थंकर एवं सिद्ध परमात्मा किसी को कुछ नहीं दे सकते हैं, वे मात्र साधना के आदर्श हैं। इसी मत का समर्थन करते हुए आदरणीय डॉ. सागरमलजी जैन लिखते हैं कि तीर्थंकर न तो किसी को संसार से पार कर सकते हैं और न किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है तथा उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है।31 भले ही परमात्मा भक्त को कुछ भी न दें, तब भी उनके महान् आदर्श का स्मरण करते हुए अध्यात्म विकास की दृष्टि से यह सोचने का अवसर प्राप्त होता है कि आत्मतत्त्व के रूप में मेरी आत्मा और तीर्थंकरों की आत्मा समान ही है, यदि मैं स्वयं प्रयत्न करूं तो उनके समान बन सकता