________________
चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...147 करते समय साधक के मन में उनका करुणा भाव छलक उठता है तथा यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि उन्होंने मूक पशु-पक्षियों की प्राण रक्षा के लिए सुन्दर राजीमती का भी परित्याग कर दिया।
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान का स्मरण आते ही तयुगीन तपपरम्परा का एक भ्रमित स्वरूप सामने आता है, जिसमें ज्ञान की ज्योति नहीं है, अन्तर्मन में कषाय की ज्वालाएँ धधक रही है और बाहर में पंचाग्नि की ज्वालाएँ सुलग रही है। प्रभु पार्श्व उन ज्वालाओं में से जलते हुए नाग युगल को बचाते हैं।कमठ तापस द्वारा भयंकर यातनाएँ दी जाने पर भी उसके प्रति द्वेष नहीं करते
और धरणेन्द्र-पद्मावती नामक देव-देवी द्वारा स्तुति किये जाने पर प्रसन्न नहीं होते हैं। इस तरह यथार्थ धर्म और उत्कृष्ट वीतराग भावों का दर्शन होता है।
चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का स्तव करने से उनके द्वारा किये गये समत्व के प्रयोगों का साक्षात अनभव होने लगता है। उन्होंने जान-बूझकर अनार्य देशों में विचरण किया। पत्थरों के प्रहार, पुलिसों द्वारा कैद, कठोर शब्दों की बोछार आदि अनेक स्थितियों में किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए। शूलपाणि यक्ष, चण्डकौशिक सर्प, संगम देव, कटपूतना व्यन्तरी आदि द्वारा दिये गये भयंकर उपसर्गों में मेरूवत अकम्प-अविचल रहे। उन्होंने जात-पात का खण्डन कर गुणदृष्टि पर बल दिया। नारी जाति को प्रायःपुरुष के समकक्ष स्वीकार करते हुए उसे विशिष्ट स्थान प्रदान किया। ___इस प्रकार तीर्थंकर देवों की स्तुति करने से मानव मन में पौरूषत्व जागृत होता है तथा 'आत्मा ही परमात्मा है' ऐसा दृढ़ निश्चय होने से उसका प्रयत्न सम्यक् दिशा की ओर प्रवर्द्धमान हो उठता है तथा काल लब्धि परिपाक होने पर स्वयं भी परमात्म स्वरूपी बन जाता है।29 . जैन विचारणा के अनुसार तीर्थंकर देवों की स्तुति अथवा भक्ति के माध्यम से साधक के अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति उसका अनुराग बढ़ता है। परिणामत: वह आत्मा सकल कर्मों का क्षयकर शुद्ध, बुद्ध, निरंजन-निराकार स्वरूप धारण कर लेती है।
यहाँ शंका हो सकती है कि तीर्थंकर पुरुषों के स्मरण एवं स्तुति मात्र करने से पाप कर्मों के बंधन कैसे टूट सकते हैं? तथा संसारी आत्मा परमात्म शक्ति को कैसे प्राप्त कर सकती है? इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि