________________
138...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में द्रव्य और भाव स्वरूप होने से उनके लिए उनकी स्थापना मानस प्रत्यक्ष का विषय बनती है, जिससे उन्हें अपनी भावदशा का स्मरण हो जाता है और उनके द्वारा अन्य आत्माओं को उनके गुणों का स्मरण हो जाता है।
सार रूप में कहें तो जो आराधक उक्त वर्णन के अनुसार तीर्थंकर परमात्मा का शुद्ध प्रणिधान पूर्वक कीर्तन और वंदन करता है, वह परम आनन्द का अनुभव करता है और उसकी स्तवना सफल होती है।15 आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि में स्तुति गान की अपेक्षा निम्नोक्त छह प्रकार बतलाये गये हैं 16
1. नामस्तव- चौबीस तीर्थंकरों के पारमार्थिक अर्थ का अनुसरण करने वाले एक हजार आठ नामों से स्तवन करना चतुर्विंशति नामस्तव है। वस्तुतः भगवान के श्रीमान्, स्वयम्भू, वृषभ, सम्भव आदि अनेक नाम उसके वास्तविक अर्थ को उद्घाटित करते हैं जैसे ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के अन्तरंग ज्ञानादि चतुष्टय रूप और बहिरंग समवसरण आदि अष्ट प्रातिहार्यादि रूप लक्ष्मी होती है इसलिए उनका श्रीमान् नाम सार्थक है। तीर्थंकर परमात्मा परोपदेश के बिना स्वयं ही मोक्षमार्ग को जानकर और उसका यथाविधि आचरण कर अनन्त चतुष्टय को उपलब्ध करते हैं इसलिए उनका ‘स्वयम्भू' यह नाम सार्थक है।
भगवान ऋषभदेव वृष अर्थात धर्म से सुशोभित है इसलिए उन्हें 'वृषभ' कहते हैं। तीर्थंकर पुरुषों के उपदेश द्वारा भव्य जीव सुखी होते हैं इसलिए उनका 'सम्भव' नाम है। इसी तरह सभी नाम सार्थक हैं।
यद्यपि इस प्रकार का नामस्तव व्यावहारिक है, क्योंकि स्तुति के विषय रूप परमात्मा तो वचन के अगोचर है। आचार्य जिनसेन कहते हैं कि हे भगवन्! आप सहस्राधिक नामों के गोचर होते हुए भी वचनों के अगोचर माने गये हैं, फिर भी स्तवन करने वाला आपसे इच्छित फल पा लेता है इसमें कोई सन्देह नहीं है अत: व्यवहार रूप नामस्तव भी करने योग्य है।17।
2. स्थापनास्तव- चौबीस अथवा अपरिमित तीर्थंकरों की कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं का, उनके चैत्यालय आदि के अतिशय द्वारा स्तवन करना, चतुर्विंशति स्थापनास्तव है। दिगम्बर आचार्यों के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ कृत्रिम अर्थात किसी शिल्पी आदि के द्वारा निर्मित होती हैं तथा नन्दीश्वर द्वीप, देवलोक आदि में स्थित प्रतिमाएँ अकृत्रिम होती हैं।18