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________________ 136... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में होते हैं। एक क्षेत्र में और एक काल में एक ही तीर्थंकर होते हैं, तब आराधक के हृदय क्षेत्र में, उनके नामस्मरण द्वारा एक ही समय में उन्हें एकत्रित करने का फल किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि एक तीर्थंकर भगवान में जो श्रेष्ठ और उत्तमोत्तम गुण होते हैं, वे गुणादि चौबीस तीर्थंकरों में भी होते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि एक तीर्थंकर देव की पूजा करने से सभी तीर्थंकर देवों की पूजा हो जाती है। आचार्य हेमचन्द्र सकलार्हत स्तोत्र के प्रथम श्लोक में पूर्ववत आर्हन्त्य - गुण के ध्यान में लीन होने का निर्देश करते हैं। उपर्युक्त तीन कारणों से स्पष्ट होता है कि एक तीर्थंकर भगवान के नाम ग्रहण से जितना लाभ होता है, चौबीस तीर्थंकरों के नाम स्मरण से भी उतना ही फल प्राप्त होता है। तब पुनः शंका होती है कि चौबीस तीर्थंकर के नामोच्चारण पूर्वक स्तवन करने की क्या आवश्यकता है? उक्त दोनों शंकाओं का निराकरण यह है कि स्वरूपतः चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के गुण एक समान है। सभी समान रूप से स्तुति के योग्य हैं फिर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से भिन्न है। इसलिए प्रत्येक तीर्थंकर के नाम स्मरण द्वारा आत्मभावों के उल्लास में जो अभिवृद्धि होती है और उसके द्वारा प्रगाढ़ कर्मों का क्षय होता है वह अपूर्व होता है । यह तथ्य अनुभव और शास्त्रों से सिद्ध है। 13 यदि नाम और नामी में सम्बन्ध न माना जाये तो 'उसभ मजिअं च वंदे' कहने पर भाषा वर्गणा के पुद्गल अचेतन होने से उनका प्रयोग निरर्थक हो जायेगा, परंतु ऐसा होता नहीं है क्योंकि कोई भी नाम ग्रहण करते समय उस नाम से वाच्य व्यक्ति अथवा उसका स्वरूप मानस चित्र पर अवश्य प्रकट होता है, इससे नाम और नामी के अभेद सम्बन्ध का सिद्धान्त स्पष्ट हो जाता है। नाम के उच्चारण के साथ में नामी की उपस्थिति का अनुभव हो जाये तो मानना चाहिए कि नामाभ्यास अर्थात तीर्थंकर स्तुति के क्षेत्र में निश्चित रूप से विकास हुआ है। नामोच्चारण से नमस्कार करने के परिणाम रूप प्रकाश आत्मा में प्रकट होता है। जिस प्रकार अग्नि के उष्ण गुण को जानने वाला, अग्नि शब्द के उच्चारण के साथ ही उष्ण गुण का स्मरण करने वाला अथवा अग्नि के आकार का चिंतन करने वाला होता है उसी प्रकार अरिहंत भगवान के प्रशमरस निमग्न आदि गुण को जानने वाला आराधक उनके नाम के उच्चारण के साथ ही
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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