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चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...135 चाहिए। इस प्रकार अरिहंत पद की आराधना अरिहंत गुण स्वरूपी समस्त जीवों की आराधना होने से समष्टि प्रधान है।
अरिहंत परमात्मा के नामों में 'उसभ' आदि की वर्ण व्यवस्था निर्णीत अनुक्रमयुत और अर्थ प्रधान हैं अतः ये नाम वाचक हैं, वाच्य नहीं। वर्णानुक्रम से नियोजित अर्थवान अक्षर समूह को नाम कहा जाता है। नाम दो प्रकार के होते हैं- यादृच्छिक और गुणनिष्पन्न। अरिहंत भगवान के नाम गुण निष्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस पुण्यवर्द्धक नाम स्वाभाविक शक्ति द्वारा वाच्यार्थ का बोध करवाते हैं।
यहाँ प्रश्न होता है कि नाम तो मात्र शब्द पदगलों का समूह हैं तब उसके स्मरण से आत्मा का किस प्रकार उपकार होता है? उसका समाधान है कि नाम नामी (व्यक्ति) के गुणों की स्मृति दिलाता है, उनके गुणों के प्रति बहुमान पैदा करता है अत: नाम स्मरण फलदायक है। राजप्रश्नीयसूत्र में कहा गया है कि देवानुप्रिय, ज्ञान-दर्शनादि गुणों को धारण करने वाले अरिहंत भगवन्तों के नामगोत्र का श्रवण भी महाफलदायक है। भक्तामरस्तोत्र में भी कहा गया है कि तीर्थंकर पुरुषों का नाम परम पवित्र और मंगलमय है। इन नामों का यथाविधि जाप किया जाये तो समस्त दुःख, समस्त पाप, सर्व प्रकार की अशान्ति अथवा सर्व प्रकार के अन्तराय दूर हो जाते हैं। प्रभु के नाम स्मरण से शुभ का प्रवर्तन होता है। तात्पर्य है कि तीर्थंकर भगवान के नाम स्मरण से सभी तरह के दुःख दूर होते हैं तथा इच्छित सुख के साधन स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं।10 इतना ही नहीं, तीर्थंकर भगवान के नाम का एक पद भी सम्यक् रूप से आत्मसात कर लिया जाये तो आत्मा स्वयं तीर्थंकर बन जाती है।11
नाम स्मरण गुणसम्पन्न और कल्याणकारी उपासना है अतः इसे भक्ति का प्रधान अंग माना गया है और कहा गया है कि भागवती भक्ति परम आनंद और संपदाओं का बीज है।12
नाम स्मरण का अद्भुत प्रभाव तभी संभव है जब वह स्मरण अर्थ के उपयोग पूर्वक और गुणानुराग से युक्त हो। उपयोग और भाव के बिना किया गया स्मरण अभीष्ट फलदान में समर्थ नहीं होता है। यहाँ प्रसंगानुरूप दो शंकाएँ उपस्थित होती है
चौबीस तीर्थंकर किसी भी क्षेत्र में और किसी भी काल में एकत्रित नहीं