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________________ 134... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में विस्मृति आदि होती है, उदर की लय टूटती है तो अजीर्ण, गैस, पाचन शक्ति में मन्दता, आलस्य, निद्रा आदि विकार उत्पन्न होते हैं। जब सृष्टि की लय टूटती है तब प्रकृति में प्रलय होता है। यदि साधना क्षेत्र में लय जुड़े तो आत्मतत्त्व का परमात्म सत्ता में विलय हो सकता है। सात स्वर लय बनाते हैं। और उससे उत्पन्न संगीत परिणाम प्रकट करता है जैसे मल्हार राग गाने से वर्षा होना, दीपक राग गाने से दीपक का जलना आदि। इस तरह प्रत्येक स्वर में चेतनात्मक विकास का प्रतीकात्मक रहस्य सन्निविष्ट हैं। इसी तरह गुणस्थान आरोहण में सात श्रेणी होती है, सूर्य की सात किरणें विशेष प्रकाश देती हैं, रात्रि में आकाश गंगा में सप्तर्षि के नक्षत्र ही चमकते हैं, काल व्यवस्था की दृष्टि से सात वार होते हैं, प्रतिदिन के शुभ कार्यों के लिए सात चौघड़िये होते हैं, इन्द्रधनुष में सात रंग होते हैं। अस्तु, मानव मात्र के आरोह-अवरोह में निमित्त भूत सप्त संख्यक अनेक पदार्थ हैं। चतुर्विंशतिस्तव के प्रकार चतुर्विंशतिस्तव भक्ति प्रधान साधना का अनुपम स्तोत्र है। इस आवश्यक का सम्यक् परिपालन कर सकें, एतदर्थ इसके प्रकारों का ज्ञान होना जरूरी है। चैत्यवन्दन भाष्य में चार प्रकार के जिन (तीर्थंकर) बतलाये गये हैं- 1. नाम जिन 2. स्थापना जिन 3. द्रव्य जिन और 4. भाव जिन। ये भेद निक्षेप यानी अर्थव्यवस्था के अनुसार हैं अतः इन्हें क्रमशः नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप कह सकते हैं। 4 1. नाम निक्षेप- पाँच भरत और पाँच ऐरवत क्षेत्र में होने वाली अतीत, वर्तमान और अनागत काल की तीस चौवीशी में अथवा महाविदेह क्षेत्र में होने वाले तीर्थंकर देवों में अरिहंत नाम का एक भी तीर्थंकर नहीं हुआ है कि जिसके आधार पर या जिसको लक्षित करके अरिहंत नाम की आराधना की जाये । वस्तुत: इस आवश्यक में अरिहंतपद की आराधना है और वह किसी आप्त विशेष को लेकर नहीं है, परन्तु सर्व क्षेत्र और सर्व काल में होने वाले सभी तीर्थंकरों के अरिहंत गुण की अपेक्षा से है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने कहा है कि अद्वितीय सामर्थ्यवान अरिहंत गुणों को लक्षित करके उनका ध्यान करना चाहिए और ध्यान के समय अरिहंत देवों के नाम ऋषभ, अजित, संभव आदि की द्रव्य और भाव आकृति का चिन्तन करना
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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