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________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...131 अथवा सच्चिदानन्द स्वरूपी आत्मा का साक्षात्कार करना। यदि प्रस्तुत सूत्र आत्मसात हो जाये तो हमारा अनादिकालीन विभाव रूप परिणाम तत्क्षण स्वभाव में रूपान्तरित हो सकता है। लोगस्स का लाक्षणिक अर्थ है- विश्व की समग्रता को उपलब्ध कर लेना। यह वैश्विक समग्रता का सूत्र है। यहाँ समग्रता का अभिप्राय चेतना के अस्तित्व का साक्षी सूत्र है। यह ऐसा प्रशस्त साधन है जिसके प्रयोग द्वारा साधक स्वयं साध्य बन जाता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में इस आवश्यक को समान रूप से स्वीकार किया गया है। पंडित आशाधरजी ने भी अर्हत, केवली, जिन, लोक उद्योतकर और धर्म तीर्थ के प्रवर्तक ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों का भक्तिपूर्वक स्तवन करने को चतुर्विंशतिस्तव कहा है। ____निष्कर्ष रूप में कहें तो आत्मस्वरूप को उजागर करने के लिए राग-द्वेष विजेता और तीर्थंकर पद से सुशोभित अरिहंत परमात्मा का अहोभाव एवं उपकार बुद्धि पूर्वक गुणगान करना, प्रशंसा करना एवं उनकी स्तवना करना चतुर्विंशतिस्तव है और यही आवश्यक रूप कहलाता है। चतुर्विंशतिस्तव के पर्यायवाची जैन परम्परामूलक साहित्य में चतुर्विंशतिस्तव के कई पर्यायवाची नाम प्राकृत में मिलते हैं। श्री श्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्र की प्रबोध टीका में इस विषयक सम्यक जानकारी दी गई है, जो आंशिक परिवर्तन के साथ इस प्रकार हैप्राकृत नाम सन्दर्भ ग्रन्थ 1. चउवीसत्थय-चतुर्विंशस्तव • महानिशीथसूत्र • उत्तराध्ययनसूत्र, 29वाँ अध्ययन • अनुयोगद्वार, सूत्र 74 . चैत्यवंदन महाभाष्य,गा. 539 पाक्षिक सूत्र वृत्ति, पत्र 72 आ 2. चउवीसत्थय (दंड) • योगशास्त्र स्वोपज्ञ विवरण पत्र 248 आ 3. चउवीसत्थव-चतुर्विंशस्तव • नंदीसूत्र, सूत्र 79 मधुकरमुनि 4. चउवीसइत्थय-चतुर्विंशइस्तव • आवश्यक नियुक्ति, गा. 1069
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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