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________________ अध्याय-3 चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन षडावश्यक में चतुर्विंशतिस्तव का दूसरा स्थान है। चौबीस तीर्थंकरों का नामोच्चारण पूर्वक गुणोत्कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव कहा जाता है। मूलतः यह भक्ति प्रधान आवश्यक है। इस आवश्यक में उन महापुरुषों का गुणगान या प्रशंसा की गई है, जिन्होंने रागादि कषाय एवं कामादि विषय रूप आत्म शत्रुओं का नाश करके अपनी आत्मा को उज्ज्वल और प्रकाशमान बनाया है। प्रत्येक आत्मार्थी का अन्तिम लक्ष्य सिद्धत्व पद की उपलब्धि है अतः उसकी संप्राप्ति के लिए ऐसे महापुरुषों का आलम्बन आवश्यक है, जिन्होंने उस लक्ष्य को सिद्ध कर लिया है। पूर्णज्ञानी एवं परिपूर्ण जीवन ही अपूर्ण को पूर्ण बना सकता है। क्योंकि जो स्वयं अपूर्ण हो उससे दूसरे के पूर्णता प्राप्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है । हम संसारी प्राणी अजरामर सुख को उपलब्ध कर सकें, इसी उद्देश्य से यह आवश्यक कहा गया है। इस स्तव के माध्यम से आत्मा में परमात्म स्वरूप को अभिव्यक्त करने का प्रबल पुरुषार्थ किया जाता है और अन्ततः वह प्रयत्न पूर्णता को भी प्राप्त करता है। चतुर्विंशतिस्तव का अर्थ एवं परिभाषाएँ चतुर्विंशति + स्तव- इन दो पदों के योग से चतुर्विंशतिस्तव शब्द निर्मित है। इसका शाब्दिक अर्थ है - चौबीस तीर्थंकर भगवान की स्तुति करना । अनुयोगद्वार में इसका दूसरा नाम उत्कीर्तनसूत्र है। आम बोलचाल की भाषा में इसको 'लोगस्स सूत्र' भी कहते हैं । उत्कीर्तन का सामान्य अर्थ होता हैगुणगान या प्रशंसा। स्पष्टार्थ है कि जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, धर्म तीर्थ स्थापक, त्याग-वैराग्य और संयम - साधना में उत्कृष्ट आदर्श रूप हैं, आत्म स्थित हैं ऐसे चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना, गुणगान करना या उनके गुणों का कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। लोगस्ससूत्र का आध्यात्मिक पक्ष है - आत्म स्वभाव को प्रकट करना
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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