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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...117
इस सम्बन्ध में भगवान महावीर का जीवन प्रत्यक्ष उदाहरण रूप है। जैन आगम साहित्य इस बात के साक्षी हैं कि सामायिक की उत्कृष्ट साधना करने वाला एक मुहूर्त में केवलज्ञान-केवलदर्शन को उपलब्ध कर सकता है। यदि मुहर्त भर के लिए भी सामायिक रूप समभाव का स्पर्श हो जाए, तो साधक सात-आठ भवों में ही संसार का अन्त कर सकता है- 'सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण नाइक्कमई'।
मूलत: सामायिकव्रत से मुनि जीवन की शिक्षा का अभ्यास होता है। चारित्रमोहनीयकर्म का क्षयोपशम होता है, सर्वविरति चारित्र का उदय होता है, संसार के त्रस-स्थावर समस्त जीवों को उतने समय के लिए अभयदान मिलता है, अहिंसा-सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह आदि आवश्यक व्रतों का परिपालन होता है। इससे सुसंस्कारों का अभ्यास होता है। इस प्रकार व्यक्ति धीरे-धीरे सन्मार्ग की ओर बढ़ता हुआ सिद्धत्व ज्योति को समुपलब्ध कर लेता है। ____ इस साधना की तुलना अन्य धर्मों की साधना पद्धति से भी की जा सकती है। जिस प्रकार सामायिकव्रत में पवित्र स्थान पर सम आसन से मन, वाक् और शरीर का संयम किया जाता है, उसी प्रकार गीता के अनुसार ध्यानयोग की साधना में भी शुद्धभूमि पर सम आसन में बैठकर शरीर चेष्टा और चित्तवृत्तियों का संयम किया जाता है।
इसमें सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत दृष्टि, सुख-दुःख, लौह-कांचन, प्रिय-अप्रिय और निन्दा-स्तुति,मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध का परित्याग करने को नैतिक-जीवन का लक्षण माना गया है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं- 'हे अर्जुन! तू अनुकूल और प्रतिकूल-सभी स्थितियों में समभाव धारण कर'1185 बौद्ध दर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। धम्मपद में कहा गया है कि सभी प्रकार के पाप कार्यों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बद्ध का उपदेश है।186 ... इस प्रकार जैन-साधना में वर्णित सामायिकव्रत की तुलना गीता के ध्यानयोग आदि की साधना एवं बौद्ध की उपदेश विधि के साथ की जा सकती है। इतना ही नहीं, वैदिक धर्मानुयायियों में सन्ध्या, मुसलमानों में नमाज, ईसाईयों में प्रार्थना, योगियों में प्राणायाम के समान ही जैन धर्म में सामायिक साधना अवश्यकरणीय है। इसमें चित्तविशद्धि और समभाव की साधना की जाती है, जो वर्तमान युग में अधिक प्रासंगिक है। जैन परम्परा में गृहस्थ के लिए यह व्रत-साधना दैनिक कृत्य के रूप में भी बतलाई गई हैं।