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116...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में सामायिक विधि के साथ-साथ आचार्य अमितगति विरचित बत्तीस श्लोकों का सामायिक पाठ भी प्रचलित है, जिसमें आत्मालोचना पूर्वक मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं मध्यस्थ भावनाओं का सुन्दर चित्रण उपस्थित किया गया है।
यदि विधि ग्रन्थों की दृष्टि से सामायिक ग्रहण एवं पारण विधि का तुलनात्मक विचार किया जाए, तो कुछ भिन्नताएँ इस प्रकार कही जा सकती हैं जैसे- तिलकाचार्यकृत सामाचारी में काष्ठासन और पादपोंछन का आदेश लेने के बाद ईर्यापथ प्रतिक्रमण करने का निर्देश है। सम्भवतः यह विधि वर्तमान की किसी भी परम्परा में मौजूद नहीं है।183 ___तिलकाचार्यकृत सामाचारी में स्वाध्याय के रूप में तीन नमस्कारमन्त्र बोलने का उल्लेख है, जबकि खरतरगच्छ की सामाचारी में आठ नमस्कारमन्त्र का स्वाध्याय करते हैं किन्तु तपागच्छ आदि परम्पराएँ तिलकाचार्य सामाचारी का अनुकरण करती हैं। इनमें स्वाध्याय रूप में तीन नमस्कारमन्त्र का स्मरण किया जाता है।184
शेष विधि नियम उपलब्ध ग्रन्थों में समरूप ही है। उपसंहार
आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम सामायिक है। सामायिक के द्वारा न केवल मानसिक सन्तापों से शान्ति मिलती है अपितु इससे बाह्य और आभ्यन्तरिक नानाविध पीड़ाओं एवं आधिभौतिक, आधिदैविक, आधिदैहिकसमस्त प्रकार की बाधाओं का सहज रूप में उपशमन भी होता है। जन साधारण में मैत्री, करुणा और अहिंसारूप नवचेतना का प्राण फूंकने में सामायिक के समान विश्व में अन्य कोई भी अनुभवसिद्ध उपाय नहीं है।
सामायिक की साधना का मुख्य ध्येय ‘आत्मवत सर्वभूतेषु'- इस सिद्धान्त को चरितार्थ करना है।
इस साधना के महत्त्व को व्यावहारिक तौर पर समझ पाना मुश्किल है। उसके लिए स्वानुभूत ज्ञान का सामर्थ्य चाहिए, अतएव इस साधना का महत्त्व एवं रहस्य भावनात्मक-बल, आध्यात्मिक-शक्ति और अनुभूति के स्तर पर ही जाना जा सकता है। __ जैन धर्म यह कहता है- विश्व में समभाव से बढ़कर कोई साधना नहीं है। व्यक्ति समताभाव के आधार पर बड़े से बड़े दुश्मनों को पराजित कर सकता है।