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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 115
आवश्यक है। आचार्य याज्ञवल्क्य ने कहा है- अर्थहीन शास्त्रपाठी की ठीक वही दशा होती है,जैसे दलदल में फँसी हुई गाय की होती है। वह न तो बाहर आने में समर्थ होती है और न ही भीतरी जल तक पहुँचने के योग्य। अन्ततोगत्वा 'उभयतोपाश' की न्यायोक्ति के अनुसार प्राप्त दशा में ही अपना जीवन समाप्त कर देती है।
वस्तुतः अर्थ की ओर ध्यान न दे पाने के कारण सूत्रोच्चारण की शुद्धाशुद्धता का भी ख्याल नहीं रह पाता है। अर्थ को न समझने से मिथ्या भ्रान्तियाँ भी फैल जाती है- किसी गाँव में एक श्राविका 'करेमि भंते' का पाठ पढ़ते समय ‘जाव' के स्थान पर 'आव' कहती थी। किसी के द्वारा पूछे जाने पर उसने तर्क देते हुए कहा कि सामायिक को तो बुलाना है उसे 'जाव' क्यों कहें ? 'आव' कहना चाहिए।
आशय यह है कि मूलपाठों के अर्थ समझना जितना जरूरी है उतना उन्हें मूल रूप में अवस्थित रखना भी आवश्यक है। तुलनात्मक विवेचन
यदि पूर्व निर्दिष्ट परम्पराओं के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो यह ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की सभी परम्पराओं में सामायिक दंडक का पाठ एक समान है, जबकि सामायिक पारने के पाठों में भिन्नता है। इसी के साथ खरतरगच्छ, तपागच्छ, पायच्छंदगच्छ एवं त्रिस्तुतिकइन परम्पराओं में पारस्परिक रूप से क्रम सम्बन्धी ही भिन्नताएँ हैं, शेष सूत्र पाठ एक समान है। अचलगच्छ की सामायिक विधि कुछ हटकर है। मूल विधि एवं तत्सम्बन्धी सूत्रों की अपेक्षा से देखा जाए, तो स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा की श्रावक सामायिक विधि मूर्तिपूजक परम्पराओं से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में सामायिक पाठ भिन्न-भिन्न हैं । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूलागमों में गृहस्थ की सामायिक विधि का विस्तृत स्वरूप प्राप्त नहीं होता है, उपासकदशासूत्र में सामायिक का सामान्य स्वरूप ही उल्लिखित है।
सारांशतः श्वेताम्बर परम्परा में नमस्कारमंत्र, गुरुवन्दनसूत्र, ईर्यापथ आलोचना सूत्र, कायोत्सर्गआगार सूत्र, स्तुतिसूत्र, प्रतिज्ञासूत्र, प्रणिपातसूत्र और समाप्तिसूत्र- ये सामायिक पाठ माने गए हैं। दिगम्बर परम्परा में पूर्वनिर्दिष्ट