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________________ 114...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में इस प्रगति युग में चन्द्र, सूर्य और हिमालय के चित्र लिए जा रहे हैं, परन्तु वे चित्र मूलवस्तु का साक्षात प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। जैसे चित्र में रहा सूर्य कभी प्रकाश नहीं दे सकता, वैसे ही मूल का अनुवाद केवल छाया-चित्र है। उसके आधार से मूल पाठों के भावों की अस्पष्ट झाँकी अवश्य ले सकते हैं; परन्तु सत्य के पूर्ण दर्शन नहीं कर सकते। प्रत्युत कभी-कभी मूलपाठ का भाव अनुवाद की भाषा में आकर असत्य से मिश्रित भी हो जाता है,क्योंकि व्यक्ति अपूर्ण है, वह पूर्ण स्वरूपी आप्त वाणी का यथावत विश्लेषण कैसे कर सकता है? उसके द्वारा कहीं न कहीं भूल होना या अधूरापन रह जाना स्वाभाविक है। इसी कारण आज के उद्भट विद्वान् आगमिक टीकाओं पर सहसा विश्वास नहीं करते, वे उसके मूलपाठ का अवलोकन करने के बाद ही अपने विचार स्थिर करते हैं अतएव प्राकृत सूत्रपाठों को मूलरूप में रखना ही पूर्णत: उचित है। तीसरा तथ्य व्यवहारमूलक एवं सद्भावों का सूचक है। यदि हम व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो भी प्राकृत-पाठ ही औचित्यपूर्ण है। भारतीय परम्परा की धर्म-क्रियाएँ सामाजिक एकता की प्रतीक हैं। साधक किसी भी जाति के हों, किसी भी प्रांत के हों, किसी भी राष्ट्र के हों, जब वे एक ही स्थान में, एक ही वेश-भूषा में, एक ही पद्धति में, एक ही भाषा में धार्मिक पाठ पढ़ते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि जैसे सब भाई-भाई हों, एक ही परिवार से जुड़े हुए सदस्य हों। आपने मुसलमान भाईयों को ईद की नमाज पढ़ते हुए देखा होगा? उस समय हजारों मस्तक एक साथ भूमि पर झुकते और उठते हुए इतने सुन्दर लगते हैं कि हृदय भाव विभोर हो उठता है। इसी तरह हजारों की तादाद में प्राकृत पाठ ही एक स्वर में उच्चरित किये जा सकते हैं हिन्दी भाषा में वह सामर्थ्य नहीं है। अत: मानवीय एकता को समुन्नत एवं सुदृढ़ बनाये रखने की दृष्टि से सामायिक के मूल पाठों को यथा रूप से अवस्थित रखना ही श्रेयकारी है।182 - जहाँ तक मूलपाठों के अर्थ से परिचित होने का प्रश्न है, उसे गुरुगम पूर्वक अवश्य समझना चाहिए। आजकल मूलसूत्रों के शब्दार्थ एवं भावार्थ से युक्त कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कदाच सद्गुरु का सान्निध्य प्राप्त न हो पाए, तो अर्थ सहित प्रतिक्रमण सम्बन्धी पुस्तकों द्वारा भी मूलपाठों का आशय सरलता पूर्वक समझा जा सकता है। सामायिक आदि सभी प्रकार की धार्मिक क्रियाओं को फलदायी बनाने के उद्देश्य से सूत्रपाठों का भावार्थ समझना अति
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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