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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 113
हैं। आजकल कई लोग यह तर्क देते हैं कि सामायिक पाठ प्राकृत भाषा में होने से इनका स्पष्टार्थ समझ नहीं आता है, केवल तोते की तरह उच्चारण करने से अथवा शब्दों के पीछे बंधे रहने से क्या मतलब? इसके भाव तो कुछ भी समझ नहीं पाते। अत: इन्हें हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि लोकभाषाओं में रूपान्तरित कर दिए जाएं, तो आम समुदाय के लिए उपयोगी एवं लाभप्रद हो सकेंगे।
उपाध्याय अमरमुनि ने तीन तथ्यों के आधार पर इस तर्क का सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया है। पहला तथ्य यह है कि महापुरुषों की वाणी में और जन-साधारण की वाणी में महत अन्तर होता है। महापुरुषों के कथन के पीछे उनके प्रौढ़ एवं सदाचार युक्त जीवन के गहरे अनुभव रहते हैं, जबकि जनसामान्य की वाणी जीवन के स्थूल स्तर से ही सम्बन्ध रखती है । यही कारण है कि महापुरुषों के साधारण शब्द भी अन्तश्चेतना को स्पर्शित कर जीवन धारा बदल देते हैं, निकृष्टतम पापी को भी धर्मात्मा और सदाचारी बना देते हैं जबकि साधारण मनुष्यों की अलंकार युक्त वाणी भी कुछ असर नहीं कर पाती । तीर्थंकर जैसे महान आत्माओं की वाणी का दूसरा चमत्कार भी प्रत्यक्ष है कि वह हजारोंलाखों वर्षों के बीतने के बावजूद भी दीर्घकाल से आज तक अविच्छिन्न रूप से जीवित है जबकि आजकल के वक्ताओं का प्रभाव उनके समक्ष ही मृत हो जाता है। हाँ, तो यह नि:सन्देह मानना होगा कि महापुरुषों के वचनों में जो विलक्षणता, प्रामाणिकता एवं पवित्रता का अपूर्व योग होता है, वैसा साधारण लोगों के वचनों में नहीं पाया जाता और यह विशिष्टता प्राचीन या प्राकृत पाठों में ही जीवन्त रह सकती है।
दूसरा तथ्य उजागर करते हुए कहा गया है कि आप्त पुरुषों के वाक्य नपेतुले होते हैं। वे बाह्य रूप से अल्पकाय मालूम होते हैं, परन्तु उनके निहितार्थ गम्भीर और अनिर्वचनीय होते हैं। दूसरे, प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में सूक्ष्म से सूक्ष्म आन्तरिक भावों को प्रकट करने की जो शक्ति है, वह प्रान्तीय भाषाओं में नहीं हो सकती । प्राकृत में एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जो प्रसंगानुसार हृदयप्रभावी भावों को प्रकट करते हैं। हिन्दी आदि भाषाओं में यह खूबी नहीं है । दिग्गज विद्वान् भी इस बात के समर्थक हैं कि प्राचीन शास्त्र पाठों का पूर्ण अनुवाद करना अशक्य है। आज की भाषाएँ मूल रहस्यों को न तो सम्यक् प्रकार से ग्रहण कर सकती हैं और न ही उन्हें उस रूप में अभिव्यक्त कर सकती है।