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112...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
__ इसका कारण यह है कि गृहस्थ सांसारिक कार्यों में रचा-पचा होने से तत्सम्बन्धी कार्यों का पूर्णरूप से त्याग नहीं कर सकता। अतएव जब वह सामायिक के लिए बैठता है तब भी सांसारिक ममता का पूर्णतः परित्याग नहीं कर सकता। इतना अवश्य है कि उसके लिए अनुमोदन का द्वार खुला रहने पर भी किसी प्रकार के आरम्भ-समारम्भ, व्यापार आदि की प्रशंसा तो नहीं कर सकता है, परन्तु जो वहाँ की ममता का सूक्ष्म तार आत्मा से बंधा रहता है वह नहीं कट पाता है। अत: सामायिक में अनुमोदन का भाग खुला रहने का यही तात्पर्य है।
तस्स भंते...अप्पाणं वोसिरामि
हे भगवन्! अब तक की गई अशुभ प्रवृत्ति में से निवृत्त होता हूँ, उनकी निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी पूर्वक (प्रकट निंदा) गर्दा करता हूँ और अशुभ प्रवृत्ति करने वाली कषायात्मा का त्याग करता हूँ।
__यहाँ 'निंदामि' का तात्पर्य अतीतकृत पाप कार्यों को अंतर्मन से मिथ्या मानकर उसके प्रति खेद करना तथा उन्हें पुन: न करने की बुद्धि धारण करना है, यही वास्तविक निंदा है। _ 'गरिहामि' का तात्पर्य है अतीतकृत पापकार्यों को अहितकारी मानकर गुरु की साक्षी पूर्वक उन्हें फिर से न करने का संकल्प करना। अप्पाणं का स्पष्टार्थ है कि उपयोग लक्षण आत्मा एक प्रकार की होने पर भी भिन्न-भिन्न परिणामों की अपेक्षा आठ प्रकार की कही गई है- 1. द्रव्यात्मा-त्रिकालवर्ती आत्मा, 2. कषायात्मा-कषाय युक्त आत्मा, 3. योगात्मा- मन, वचन और काय व्यापार में प्रवृत्त आत्मा 4. उपयोगात्मा- उपयोग लक्षण रूप आत्मा 5. ज्ञानात्मासम्यग्ज्ञान रूप स्पष्ट बोध को प्राप्त करने वाली आत्मा 6. दर्शनात्मा- सामान्य अवबोध करने वाली आत्मा 7. चारित्रात्मा- हिंसादि दोषों से निवृत्त बनी हुई आत्मा 8. वीर्यात्मा-शक्तिवान आत्मा। इन आठ में से कषायात्मा त्याग करने योग्य है, क्योंकि वह संसार वृद्धि का कारण रूप है, आध्यात्मिक प्रगति में बाधक रूप है।181 सामायिक पाठ प्राकृत भाषा में ही क्यों? ।
सामायिक एक पापविरत साधना है। इस साधना में प्रवेश करने हेतु परम्परागत कुछ सूत्र पाठ बोले जाते हैं, जो अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध