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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...101 पर निर्मित है। इसे सामायिक भाष्य भी कहते हैं। इसमें सामायिक स्वरूप की विविध रूपों में चर्चा की गई है, किन्तु सामायिक ग्रहण करने के लिए अन्य कौन-कौनसी क्रियाएँ की जाती हैं? उसका स्वरूप अनुपलब्ध है। इस भाष्य पर 1. स्वोपज्ञ टीका 2. कोट्याचार्यकृत टीका 3. मलधारी हेमचन्द्रकृत टीकाएँ भी मिलती हैं। उनमें भी प्रमुख रूप से सामायिक आवश्यक का ही प्रतिपादन है। इसके सिवाय जिनदासकृत चूर्णि भी सामायिक आवश्यक पर विशेष प्रकाश डालती है।159
इसी तरह टीका ग्रन्थों का अवलोकन किया जाए तो सामायिक के प्रकारों, अधिकारों एवं उपायों आदि का निरूपण तो प्राप्त हो जाता है किन्तु तत्सम्बन्धी विधि का सूचन प्राप्त नहीं होता है। इससे सुनिश्चित है कि विक्रम की 7वीं-8वीं शती तक सामायिक विधि का एक सुव्यवस्थित विकास नहीं हो पाया था। इससे आगे बढ़ते हैं, तो आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों से लेकर 10वीं-11वीं शती तक के ग्रन्थों में भी यह विधि सुगठित रूप से उपलब्ध नहीं होती है। यद्यपि हरिभद्रसूरिकृत एवं हेमचन्द्रसूरिकृत श्रावकधर्म सम्बन्धी ग्रन्थों में सामायिकव्रत को लेकर काफी कुछ कहा गया है, किन्तु तत्सम्बन्धी विधि-विधान का उनमें अभाव है। __ ऐतिहासिक दृष्टि के आधार पर सामायिक विधि का क्रमबद्ध स्वरूप पूर्णिमागच्छीय तिलकाचार्यकृत सामाचारी160 एवं खरतरगच्छीय विधिमार्गप्रपाइन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।161 इसके अनन्तर अभयदेवसूरिकृत पंचाशकवृत्ति, विजयसिंहाचार्यकृत वंदित्तुसूत्रचूर्णि, हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्रटीका, कुलमंडनसूरिकृत विचारामृतसंग्रह, मानविजयजीकृत धर्मसंग्रह आदि कुछ ग्रन्थों में करेमिभंते सूत्र को लेकर अवश्य विचार किया गया है। . उक्त आधार पर कहा जा सकता है कि सामायिक का एक सुनियोजित स्वरूप सर्वप्रथम तिलकाचार्य सामाचारी और विधिमार्गप्रपा में ही उपलब्ध होता है। यद्यपि सुबोधा सामाचारी एवं आचार दिनकर ‘पाण्मासिक सामायिक आरोपणविधि' की चर्चा अवश्य करते हैं, किन्तु सामायिक किस क्रम एवं आलापक पूर्वक ग्रहण करनी चाहिए? उसका कोई निर्देश नहीं है। अतएव सामायिक विधि के सम्बन्ध में तिलकाचार्यकृत सामाचारी और जिनप्रभरचित विधिमार्गप्रपा- दोनों सामाचारी ग्रन्थ विशिष्ट स्थान रखते हैं।