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96... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
है। प्रायः समत्व और सामायिक दोनों एक ही अर्थ के वाचक बनते हैं। मनोवैज्ञानिक भाषा में जिसे चित्तवृत्ति का समत्व कहते हैं जैन परम्परा में उसे सामायिक कहा गया है। अतः चित्तवृत्ति के समत्व की साधना ही सामायिक की साधना है, क्योंकि जिससे समत्व की प्राप्ति या लाभ हो, उसे ही सामायिक कहते हैं। दूसरे, मनोवैज्ञानिक भाषा में जिसे चित्तवृत्ति का समत्व कहते हैं उसे दर्शन के क्षेत्र में 'समाधि' भी कहा जाता है । इस प्रकार चित्तवृत्ति का समत्व, सामायिक और समाधि- तीनों एक अर्थ का भी सूचन करते हैं । विशेषता यह है कि समत्व की उपलब्धि के लिए सजग होकर पुरुषार्थ करना सामायिक है और इस दृष्टि से समत्व साध्य है और सामायिक साधन है। फिर भी यहाँ साध्य और साधन में द्वैत भाव नहीं है, क्योंकि समत्व के बिना सामायिक नहीं होती और सामायिक की साधना बिना समत्व की उपलब्धि नहीं होती है। यद्यपि सम्यक् बोध की अपेक्षा समत्व और सामायिक में साध्य - साधन भाव है । समत्व की प्राप्ति होना समाधि है। इसी तरह समत्व और सम्यक्त्व में आधार - आधेय सम्बन्ध है। जो समत्व से युक्त हो, उसे ही सम्यक् कहा जा सकता है। जब तक चित्तवृत्ति में समत्व नहीं आता तब तक आचार या विचार सम्यक् नहीं हो सकते। समत्व पूर्ण विचार ही सम्यक् विचार है और समत्वपूर्ण आचार ही सम्यक् आचार है। संक्षेप में कहें तो समत्व की अभिव्यक्त ही सम्यक्त्व है।
यद्यपि समत्व आधार है और सम्यक्त्व आधेय है। यह अनुभूतिजन्य तथ्य कि जहाँ राग-द्वेष हो वहाँ तनाव होगा ही, अतः राग-द्वेष का अभाव ही समत्व का परिचायक है। सम्यक्त्व का एक अर्थ सत्य या उचितता भी है, किन्तु जो विषमभाव से युक्त हो वह न तो सत्य हो सकता है और न ही उचित । अतएव मानना होगा कि सम्यक्त्व के लिए समत्व आवश्यक है।
हम देखते हैं कि साधना की दृष्टि से समत्व - सम्यक्त्व एवं सामायिक तीनों समान अर्थ के बोधक हैं और परस्पर में एक- दूसरे में अनुस्यूत हैं, किन्तु व्यवहारतः इनमें साध्य-साधन एवं आधार - आधेय सम्बन्ध हैं। दूसरा समत्व की उपस्थिति में ही सम्यक्त्व और सामायिक - ये दोनों कर्म सार्थकता प्रदान करते हैं। समत्व के अभाव में सम्यक्त्व - सम्यक्त्व नहीं रहता और सामायिकसामायिक रूप नहीं रहती है। अतः सम्यक्त्व और सामायिक- इन दोनों के लिए समत्व शब्द का प्रयोग कर सकते हैं।