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92...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में एक-दूसरे का अनुकरण भी होने लगे और अंत में सामायिक के प्रति अभाव भी उत्पन्न न हो इस दृष्टिकोण से भी सामायिक का कालमान निश्चित होना आवश्यक प्रतीत होता है। तदुपरांत वैयक्तिक क्रिया विधियों में एकरूपता बनी रहे और सामान्य जनसमुदाय में वाद-विवाद, संशय आदि को स्थान न मिले, यह भी आवश्यक है अत: इन दृष्टियों से भी सामायिक की काल मर्यादा मनोवैज्ञानिक सिद्ध होती है।
जहाँ तक आगम साहित्य का सवाल है वहाँ आगम प्रधान एवं व्याख्या प्रधान ग्रन्थों में इस विषयक कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता है। सामायिक पाठ में भी काल मर्यादा के लिए ‘जावनियम' शब्द का ही प्रयोग हुआ है, 'मुहूर्त' आदि का नहीं। यद्यपि जैनाचार्यों ने पूर्वोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ‘दो घड़ी' की काल मर्यादा निश्चित की है इस बात का सर्वप्रथम उल्लेख योगशास्त्र में पढ़ने को मिलता है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आर्त और रौद्र ध्यान तथा सावध व्यापारों का त्याग कर एक मुहूर्त पर्यन्त समभाव में स्थित रहना सामायिक व्रत है।143 ___ इस मत का समर्थन करते हुए जिनलाभसूरि ने आत्मप्रबोध में लिखा है कि- इस सावधयोग के प्रत्याख्यान रूप सामायिक का मुहूर्त्तकाल शास्त्रसिद्धान्तों में नहीं हैं, लेकिन किसी भी प्रत्याख्यान का जघन्य काल नवकारसी के प्रत्याख्यान के समान एक मुहूर्त का होना चाहिए।144 स्पष्टार्थ है कि जिस प्रकार दस प्रत्याख्यानों में नमस्कार सहित अर्थात नवकारसी के काल का पौरूषी आदि के समान उल्लेख नहीं है। नवकारसी का प्रत्याख्यान करते समय मुख्य रूप से इतना ही पाठ बोला जाता है कि 'जब तक प्रत्याख्यान पूर्ण करने के लिए नमस्कारमन्त्र न पढूं, तब तक अन्न-जल का त्याग करता हूँ। परन्तु पूर्व परम्परा से इसके लिए मुहूर्त भर का काल माना जाता रहा है। मुहूर्त से अल्पकाल के लिए नवकारसी का प्रत्याख्यान नहीं किया जाता, अतएव सामायिक के लिए भी इसी तरह समझना चाहिए।
यहाँ प्रसंगवश यह कहना भी जरूरी है कि जो लोग दो या तीन सामायिक एक साथ ग्रहण करते हैं, उनकी वह सामायिक काल की अपेक्षा उचित नहीं है। पौषध व्रत और देशावगसिक व्रत की बात अलग है, क्योंकि इन व्रतों का काल पूर्व से ही अधिक बताया गया है, किन्तु सामायिक एक-एक करके ग्रहण करना