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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 91
ये दोनों देव क्रूर प्रकृति के माने गये हैं, जबकि पूर्व दिशा देवताओं की और उत्तर दिशा मनुष्यों की कही गई है। 141
अतः सामायिक पूर्व या उत्तर दिशा के सम्मुख होकर करनी चाहिए। सामायिक का सामान्य काल दो घड़ी ही क्यों?
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि सामायिक की काल मर्यादा दो घड़ी ही क्यों? संभवत: यह काल मर्यादा गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं और मनुष्य की चित्तशक्ति को लक्ष्य में रखकर निश्चित की गई है। सामायिक का काल इतना लंबा न हो कि दैनिक उत्तरदायित्व और कार्यों से निवृत्त होकर उतने समय के लिए भी अवकाश पाना गृहस्थों के लिए मुश्किल हो जाए। तदुपरान्त सामायिक में स्थिरकाय होकर एक आसन पर बैठना अत्यावश्यक है। भूख, तृषा, शौचादि व्यापारों को लक्ष्य में रखकर और देह भी अकड़ न जाए, उसे ध्यान में रखकर यह काल मर्यादा निश्चित की गई है। सामायिक में बैठने वालों को सामायिक के प्रति उत्साह होना चाहिए, शरीर के लिए वह दंड या भाररूप नहीं बनना चाहिए।
जैन दर्शन के अनुसार काल का अविभाज्य सूक्ष्मतम अंश समय है। असंख्यात समय की एक आवलिका होती है। 67, 77, 216 आवलिका का एक मुहूर्त होता है। एक मुहूर्त में 48 मिनट होते हैं सामायिक की काल मर्यादा के पीछे दूसरा आगमिक नियम यह है कि साधारण व्यक्ति अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त्त तक एक विचार, एक भाव या एक ध्यान पर स्थिर रह सकता है। अन्तर्मुहूर्त्त के बाद निश्चित रूप से विचारों में परिवर्तन आता है। अतः एक धारा रूप विचारों की दृष्टि से सामायिक का काल 48 मिनट रखा गया है।
इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में कहा भी है कि 'अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं' - चित्त किसी भी एक विषय पर एक मुहूर्त्त तक ही ध्यान कर सकता है। 142
आधुनिक मानस शास्त्री और शिक्षा शास्त्रियों ने भी इस बात का समर्थन किया है। इस काल मर्यादा के पीछे तीसरा हेतु यह है कि यदि गृहस्थों के लिए ऐसी कोई काल मर्यादा रखी न होती, तो इस क्रिया विधि का कोई गौरव नहीं रहता और अनवस्था प्रवर्तमान होती । निश्चित काल मर्यादा न होने पर कोई दो घड़ी सामायिक करता, तो कोई घड़ी भर ही, तो कोई पाँच-दस मिनिटों में ही किनारा कर लेता है, अतः कम से कम सामायिक करने की वृत्ति बढ़ती जाए,