________________
सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 89
माना गया है। इसे सुखासन भी कहते हैं । लोकभाषा में इसे पालथी मारकर बैठना भी कहा जाता है। इस प्रकार सामायिक में साधक को आसन का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
दिगम्बर परम्परा में सामायिक योग्य आसन, क्षेत्र, दिशा आदि का उल्लेख करते हुए यही कहा गया है कि इस समय पर्यंकासन या कायोत्सर्ग आसन हो, कटिभाग सीधा एवं निश्चल रहे, दृष्टि नासाग्र पर स्थित हो, नेत्र न अधिक खुले हों न मूंदे हुए हो, अप्रमत्त - प्रसन्न चित्त हो । भूमि निर्जीव एवं छिद्ररहित हो तथा स्वयं काष्ठशिला पर अवस्थित हो ।
समत्व की आराधना के लिए पर्वत, गुफा, वृक्ष कोटर, नदी पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान, शून्यागार, पर्वत शिखर, सिद्धक्षेत्र - सिद्धाचल आदि तीर्थस्थल, चैत्यालय आदि क्षेत्र उत्तम हैं। 137
सामायिक की दिशा पूर्व या उत्तर ही क्यों?
सामायिक करते समय दिशा का ध्यान रखना भी आवश्यक है। यह साधना पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इन दिशाओं का विशिष्ट महत्त्व है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी कहा है- पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर सामायिक ग्रहण करना चाहिए अथवा जिस दिशा में तीर्थंकर विचरण कर रहे हों या जिनालय हो, तो उस दिशा की ओर मुख करके सामायिक ग्रहण करना चाहिए। 1
138
जैनाचार्यों ने इससे अधिक कुछ नहीं कहा है, किन्तु वैदिक विद्वान् सातवलेकरजी ने इन दिशा के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पूर्व का एक नाम ‘प्राची' है। यह ‘प्र' उपसर्ग एवं गत्यार्थक 'अञ्च' धातु से निष्पन्न है। 'प्र' उपसर्ग प्रकर्ष, आधिक्य, आगे, सम्मुख - इन अर्थों का वाचक है तथा 'अञ्च्’ धातु बढ़ना, प्रगति करना, चलना, पूजा - सत्कार आदि अर्थों का बोधक है। इस प्रकार पूर्व दिशा का अभिप्रेत है- आगे बढ़ना, उन्नति करना, प्रगति करना, अभ्युदय को प्राप्त करना आदि। 139 इन अर्थों के आधार पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सामायिक करने का प्रयोजन यह है कि सूर्य पूर्व दिशा में उदित होता है, इससे पूर्व दिशा उदय मार्ग की सूचना देती है, स्वयं की तेजस्विता को निखारने की प्रेरणा करती है तथा मानव मात्र को स्व सामर्थ्य के अनुसार अभ्युदय करने का संकेत करती है।