________________
88...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में बातें आवश्यक है- 1. अशुभ विचारों का परित्याग करना और 2. शुभ विचारों को आश्रय देना। जैन विचारणा में आर्त और रौद्र- ये दो अशुभ विचार (अप्रशस्त ध्यान) माने गये हैं। प्रिय वस्तु या व्यक्ति का वियोग न हो जाए, अप्रिय वस्तु आदि का संयोग न हो जाए, सम्भावित और अप्राप्त को प्राप्त करने की चिन्ता करना आर्त विचार है तथा दूसरों को दुःख देने का संकल्प करना रौद्र विचार है। सामायिक व्रती को इन अप्रशस्त विचारों को मन में स्थान नहीं देना चाहिए। इनके स्थान पर मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थ भावना का चिन्तन करना चाहिए।135
दिगम्बर साहित्य में सामायिक की सफलता हेतु निम्न सप्तविध शुद्धियाँ अनिवार्य कही गई हैं- 1. क्षेत्र शुद्धि 2. काल शुद्धि 3. आसन शुद्धि 4. विनय शुद्धि 5. मन:शुद्धि 6. वचन शुद्धि और 7. काय शुद्धि।136 इनका स्वरूप पूर्ववत ही जानना चाहिए।
उक्त शुद्धियों के सन्दर्भ में ऐतिहासिक और तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि जैन आगमों में इस प्रकार का अलग से कोई विवरण नहीं है। यह व्यवस्था परवर्ती आचार्यों की है। यद्यपि द्रव्य सामायिक की अपेक्षा से शुद्धियाँ सभी परम्पराओं में अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकारी गई हैं। सामायिक आसन का रहस्य
योग के आठ अंगों में आसन का तीसरा स्थान है। यहाँ आसन से अभिप्राय बैठने के तरीके से है। कुछ लोग स्वाभाविक रूप से बहुत ही अव्यवस्थित बैठते हैं, थोड़ी देर भी स्थिर होकर नहीं बैठ सकते। अस्थिर आसन मन की दुर्बलता और चंचलता का द्योतक है। मननीय तो यह है कि जो व्यक्ति दो घड़ी (48 मिनट) के लिए भी अपने शरीर को नियंत्रण में नहीं रख सकता, वह अयोगी दशा को कैसे उपलब्ध कर सकता है? जबकि प्रत्येक साधना का चरम लक्ष्य निर्विकल्प सिद्ध अवस्था को संप्राप्त करना है। स्थिर आसन-लक्ष्य प्राप्ति का परम उपाय है। योग्य आसन से रक्तशुद्धि होती है। परिणामत: देह स्वस्थ और निरोगी रहता है। देह के निरोग रहने से विचार-शक्ति को वेग मिलता है। दृढ़ आसन का मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है, एतदर्थ सामायिक में सिद्धासन अथवा पद्मासन आदि किसी भी अनुकूल-सुखद आसन पूर्वक बैठना चाहिए। आसन के विभिन्न प्रकार हैं उनमें सामायिक के लिए पर्यंकासन उत्तम