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________________ सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 77 श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार इसे मुख से चार अंगुल दूर रखना चाहिए। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में इसे मुख पर बांधते हैं। दिगम्बर परम्परा में मुखवस्त्रिका का उपयोग ही नहीं होता है । मुखवस्त्रिका 16 अंगुल लम्बी और 16 अंगुल चौड़ी होनी चाहिए। चरवला- चर + वला- इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न है। चर अर्थात चलना, फिरना, उठना आदि गतिशील क्रियाएँ, वला अर्थात पूंजना, प्रमार्जना | सामायिक सम्बन्धी प्रत्येक क्रिया प्रमार्जना पूर्वक होनी चाहिए । प्रमार्जना करने से जीव रक्षा होती है। जीव रक्षा द्वारा अहिंसा का पालन होता है तथा अहिंसा का पालन करना ही यथार्थ धर्म है। अतएव चरवला का उपयोग जीव रक्षा के लिए होता है। सामायिकव्रती को खमासमण, वंदन, सज्झाय, आदि आदेश के निमित्त या अन्य आवश्यक कार्यों के लिए उठना-बैठना हो, तब वह चरवले द्वारा पाँव एवं आसन की प्रमार्जना अवश्य करें। हमें प्रत्यक्षतः जीव न भी दिखाई दें तो भी यतना पूर्वक प्रवृत्ति करना जिनाज्ञा है। चरवला ऊन के गुच्छों से बनता है। इसका परिमाण बत्तीस अंगुल कहा गया है। इसमें 24 अंगुल की डण्डी और 8 अंगुल ऊन की फलियाँ होनी चाहिए। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की सभी परम्पराओं में आसनादि उपकरणों का प्रयोजन एवं परिमाण एक समान स्वीकारा गया है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में चरवले का प्रयोजन और उसकी उपयोगिता तो उसी रूप में स्वीकार्य है किन्तु माप आदि के सम्बन्ध में कुछ भिन्नता है । सामायिक के दोष सामायिक व्रत स्वीकार कर लेने के बाद भी ज्ञात-अज्ञात में बत्तीस दोषों के लगने की संभावनाएँ रहती हैं। उनमें दस मन सम्बन्धी, दस वचन सम्बन्धी और बारह काया सम्बन्धी दोष लगते हैं। साधक को इन दोषों से रहित सामायिक करनी चाहिए, वही शुद्ध सामायिक कही गई है । सामायिक से सम्बन्धित दोष निम्न हैं मन सम्बन्धी दस दोष 1. अविवेक- सामायिक के प्रयोजन और स्वरूप के ज्ञान से वंचित रहकर सामायिक करना।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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