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76...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
ऊनी-वस्त्र में संचय का गुण होता है, अतएव ऊनी आसन पर बैठकर साधना करने से जो शक्तियाँ जागृत होती हैं वे साधक के अपने दायरे में ही सीमित रहती है। जिससे साधक संचित शक्तियों के माध्यम से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार ऊनी वस्त्र बाह्य अशुद्धियों को ग्रहण नहीं करता तथा सूक्ष्म जीव आदि भी इससे संस्पर्शित होकर प्राणनाश को प्राप्त नहीं होते। भूमि में गुरुत्वाकर्षण का गुण होने के कारण बिना आसन साधना करने से अर्जित शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। इस प्रकार आसन का प्रयोजन आत्मिक एवं भावनात्मक शक्तियों का संग्रह करना है।
दूसरा प्रयोजन यह है कि साधना के लिए बिना आसन बैठने पर अन्य व्यक्ति यह समझ नहीं पाएगा कि वह सामायिक में बैठा हुआ है या ऐसे ही बैठा है। यह ज्ञात न होने पर अव्रती उससे अनावश्यक वार्तालाप कर सकता है अथवा बिना आसन के वह स्वयं भी सामायिक को विस्मृत कर सकता है, इधर-उधर आ-जा सकता है, इत्यादि कई दोषों की संभावनाएँ बनी रहती है। इसलिए आसन पर बैठकर सामायिक करनी चाहिए।
गृहस्थ-श्रावक का आसन लगभग डेढ़ हाथ लम्बा और सवा हाथ चौड़ा होना चाहिए।
मुखवस्त्रिका- इसका सीधा सा अर्थ है- मुख पर लगाने का वस्त्र। मुखवस्त्रिका का प्रयोग मुख्यत: जीवरक्षा एवं आशातना से बचने के लिए किया जाता है, जैसे-स्वाध्याय करते समय पुस्तक पर थूकादि के छींटे न लग जाएं, गुरु भगवन्त से धर्मचर्चा करते समय उन पर थूक आदि न उछल जाए, सूत्रादि का उच्चारण करते समय थूक आदि से स्थापनाचार्य की आशातना न हो जाए। संपातिम त्रस जीव जो सर्वत्र उड़ते रहते हैं, वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें प्रत्यक्ष में देखना असंभव है। खुले मुँह बोलने पर व्यक्ति की उष्ण श्वास उन जीवों के लिए प्राणघाती बन सकती है, अत: जीवरक्षा और आशातना से बचने के लिए मुखवस्त्रिका का उपयोग करते हैं। दूसरा अनुभूतिजन्य कारण यह है कि इसे मुख के आगे रखने पर व्यक्ति सावध, कठोर या अप्रियवचन नहीं बोल सकता है। यह इस उपकरण का निसर्गज प्रभाव है।
सामान्यतया मुखवस्त्रिका, हित-मित-परिमित बोलने का संदेश देती है और गृहीत व्रत में स्थिर रहने का आह्वान करती है।