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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...75 माध्यम से चित्तवृत्तियों के उपशमन का, मध्यस्थभाव में स्थिर रहने का, समस्त जीवों के प्रति समानवृत्ति का और सर्वात्मभाव का भी अभ्यास होता है। __ • सामायिक में साधक की चित्तवृत्ति क्षीरसमुद्र की भाँति एकदम शान्त रहती है, इससे नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है।
• आत्मस्वरूप में स्थित रहने के कारण जो कर्म शेष रहे हए हैं, साधक उनकी भी निर्जरा कर लेता है। इसीलिए आचार्य हरिभद्रसूरि ने लिखा हैसामायिक की विशुद्ध साधना से जीव घातिकर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
• वह विषय-कषाय और राग-द्वेष से विमुक्त हुआ सदैव समभाव में स्थित रहता है।
• सामायिक अभ्यासी के अन्तर्मानस में विरोधी को देखकर न क्रोध की ज्वाला भड़कती है और न ही हितैषी को देखकर वह राग से आह्लादित होता है। वह समता के गहन सागर में डुबकी लगाता रहता है। वह न तो निन्दक से डरता है, न ही ईर्ष्याभाव से ग्रसित होता है। उसका चिन्तन सदा जागृत रहता है। वह सोचता है कि संयोग और वियोग- दोनों ही आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। ये तो शुभाशुभ कर्मों के उदय का फल है।
• समता का अभ्यास होते-होते मानसिक एवं वैचारिक बीमारियाँ भी दूर होती है।
• इससे नैष्ठिक बल बढ़ता है।
.अनगारधर्मामृत में कहा गया है कि सामायिक के प्रभाव से एकादशांग का अध्येता और द्रव्य चारित्रधारी अभव्य भी नौवें ग्रैवेयक विमान में जन्म लेता है।118
• रत्नसंचयप्रकरण के अनुसार त्रियोग की शुद्धि पूर्वक एवं बत्तीस दोष रहित सामायिक करने से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।119 सामायिक उपकरणों का स्वरूप एवं प्रयोजन
सामायिक साधना में मुख्यतया आसन, चरवला एवं मुखवस्त्रिका का उपयोग होता है। इनका सामान्य वर्णन निम्नानुसार है
आसन- शास्त्रीय परिभाषा में इसे काष्ठासन कहते हैं। इसका एक अन्य नाम पादपोंछन भी है। वर्तमान में यह आसन के नाम से रूढ़ है। आसन ऊन का होना चाहिए। सूती या टेरीकोट आदि का आसन निषिद्ध माना गया है।