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________________ सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...71 समभाव की साधना से आशारूपी बेल नष्ट हो जाती है, अविद्या विलीन हो जाती है और वासनारूपी सर्प मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जो कर्म करोड़ों वर्षों तक तप आदि करने पर भी नष्ट नहीं होते, उन्हें समभावरूपी भूमिका पर आरूढ़ मुनि पलक झपकने जितने काल में नष्ट कर देता है। इस प्रकार समत्वयोग की शक्ति महान है। ____ आचार्य शुभचन्द्र तो यहाँ तक कहते हैं कि जैन जगत में शास्त्रों का जो विस्तार है, वह मात्र समत्व की महिमा को प्रकट करने के लिए है। समत्व भाव से भावित आत्मा को जो आनन्दानुभूति होती है, उसका स्वरूप ज्ञात करके ही ज्ञानीजन समत्वयोग का अवलम्बन लेते हैं। अत: जो व्यक्ति आत्मशांति या आत्मविशुद्धि को चाहता है, वह स्वयं को समभाव से अधिवासित करें। समभाव की प्राप्ति कैसे होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि जब आत्मा औदारिक, तैजस व कार्मण- इन तीन शरीरों के प्रति रागादि भाव का त्याग करती हैं और समस्त परद्रव्यों और पर पर्यायों से अपने विलक्षण स्व-स्वरूप का निश्चय करती हैं, तभी साम्यभाव में अवस्थित होती है। जो समभाव में स्थित है, वही अविचल सुख और अविनाशी पद को प्राप्त करता है इस प्रकार समस्त साधना का मूल केन्द्र समत्व साधना ही है। ज्ञानार्णव में इसके महत्त्व को दर्शाते हुए यह भी कहा गया है कि समत्व योगी के प्रभाव से परस्पर वैरभाव रखने वाले क्रूर जीव भी जन्मगत शत्रुभाव को भूल जाते हैं तथा पारस्परिक ईर्ष्याभाव को छोड़कर मित्र बन जाते हैं। जिस प्रकार वर्षा के होने पर वन में लगा हुआ दावानल समाप्त हो जाता है उसी प्रकार समत्व योगियों के प्रभाव से जीवों के क्रूरभाव भी शान्त हो जाते हैं। जिस प्रकार शिशिर ऋतु के समय अगस्त्य तारे के उदय होने पर जल निर्मल हो जाता है वैसे ही समत्व युक्त योगियों के सान्निध्य से मलिन चित्त भी निर्मल हो जाता है। समत्वयोगी का मानसिक बल अत्यन्त दृढ़ होता है। कदाच अचल पर्वत भी चलायमान हो जाये, किन्तु साम्यभाव में प्रतिष्ठित मुनि का चित्त अनेक उपसर्गों से भी विचलित नहीं होता है।111 यदि गृहस्थ भूमिका की अपेक्षा इसका मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि गृहस्थ-धर्म के बारह व्रत अपने-अपने स्वरूप में उत्कृष्ट हैं यद्यपि सामायिक व्रत
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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