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72... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
का महत्त्व सर्वाधिक है। इसका कारण यह है कि जब तक सम-भाव की उत्पत्ति न हो, राग-द्वेष की परिणति कम न हो तब तक उग्र तप एवं जप आदि की साधना कितनी ही क्यों न की जाए, उससे आत्म-विशुद्धि संभव नहीं होती । अतः अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव के द्वारा जीवन्त रहते हैं। गृहस्थजीवन में अभ्यास की दृष्टि से दो घड़ी तक सामायिक व्रत किया जाता है तथा मुनि जीवन में यह यावज्जीवन के लिए धारण किया जाता है । तदनन्तर छठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है। मोक्ष अवस्था में जहाँ साधना समाप्त होती है वहाँ समभाव पूर्ण हो जाता है और समभाव की पूर्णता का नाम ही मोक्ष है । 112
तीर्थंकर परमात्मा दीक्षा लेते समय सर्वप्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करते हैं 113 तथा केवलज्ञान के पश्चात भी वे जन सामान्य के समक्ष सर्वप्रथम इस महान् व्रत का उपदेश करते हैं । 114
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के आगे प्रयुक्त 'सम्यक्' शब्द समभाव का ही द्योतक है, क्योंकि समत्व के अभाव में ज्ञान, दर्शन और चारित्र भी सम्यक् नहीं बनते हैं। इसी तरह सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात- इन पाँच प्रकार के चारित्र में भी सामायिक चारित्र इसलिए प्रधान है कि इन सभी में सामायिक चारित्र अन्तर्निहित है। सामायिक चारित्र के अभाव में शेष का परिपालन होता ही नहीं है।
सामायिक पारसमणि के समान है, जिसके संस्पर्श (आचरण) से अनादिकालीन मिथ्यात्व आदि की कालिमा से आत्मा मुक्त हो जाती है । ज्ञानियों की दृष्टि में सामायिक मूल्यवान रत्न के समान है । रत्न को जितना तराशा जाए, उसमें उतना ही अधिक निखार आता है, उसी प्रकार मानसिक - वाचिक एवं कायिक सावद्य व्यापारों को जितना - जितना दूर किया जाए, उतना उतना आत्म है।
प्रकाश बढ़ता
सामायिक की तुलना में यह भी कहा गया है कि व्यक्ति प्रतिदिन एक लाख स्वर्णमुद्रा का दान करें और कोई एक सामायिक करें, इसमें एक सामायिक करने वाले का महत्व अधिक आंका गया है। कहीं ऐसा भी उल्लेख है कि कोई ऐसी लाख मुद्राओं का दान लाख वर्ष तक करता रहे, तो भी एक सामायिक की बराबरी नहीं हो सकती है । 115