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46... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
अर्थात आगमन। पर विषयों से निवृत्त होकर उपयोगवान आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति करना समाय है अथवा राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा 'सम' है उसमें आय अर्थात उपयोग रूप प्रवृत्ति समाय है। वह समाय जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं। 4
• सामायिक की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि रागद्वेष की स्थिति में मध्यस्थ रहना सम है, माध्यस्थ भावयुक्त साधक की मोक्ष के अभिमुख जो प्रवृत्ति है वह सामायिक है अथवा सम= एकत्व रूप से आत्मा का, आय=लाभ समाय है और समाय का भाव ही सामायिक है। इसका दूसरा निरुक्त इस प्रकार भी किया जा सकता है - हिंसा के हेतुभूत जो आय स्रोत हैं, उनका त्याग कर प्रवृत्ति को संयत करना समाय है तथा इस प्रयोजन से होने वाला प्रयत्न सामायिक है।
• आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने सामायिक की व्याख्या अनेक निरुक्तों के माध्यम से की है
सम अर्थात राग-द्वेष का अभाव, आय अर्थात अयन-गमन, सम की ओर गमन करना समाय है, समाय का भाव ही सामायिक है अथवा सम का लाभ होने से कषायादि की निवृत्ति अथवा सम भाव में तच्चित्त - तद्रूप होना, अथवा सम का प्रयोजन सामायिक है।
तीसरे निरुक्त के अनुसार सम-सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र के प्रति, अयन-गमन करना, समाय है तथा उसका भाव सामायिक है ।
चौथे निरुक्त के अनुसार सम का आय अर्थात गुणों की प्राप्ति होना समाय है और वही सामायिक है।
पाँचवें निरुक्त के अनुसार साम- सर्व जीवों की मैत्री में, अय-गमन करना अर्थात प्राणी मात्र के प्रति मैत्री स्थापित करना सामायिक है। इसी तरह सम्यग् अय अर्थात सम्यक वर्तन करना है। यहाँ सामाय 'स' और 'म' इन दोनों अक्षरों की वृद्धि होने रूप सामायिक है।
• अन्य निरुक्त के अनुसार साम अर्थात अन्य जीवों को पीड़ा नहीं देना, सम्म अर्थात सम्यक प्रकार से ज्ञानादि नय का परस्पर योजन करना और सम अर्थात माध्यस्थ भाव में वर्तन करना सामाय है । इसमें 'इक्' प्रत्यय जोड़ने पर सामायिक शब्द बनता है ।