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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...31 संयोजना दोष कहते हैं। उसकी शुद्धि हेतु किया जाने वाला प्रायश्चित्त संयोजना (संजोयणा) प्रायश्चित कहलाता है।52 3. आरोपणा प्रायश्चित्त
अपराधी को जिस अपराध का प्रायश्चित्त दे दिया गया है उस अपराध का पुन: पुन: सेवन करने पर उसी प्रायश्चित्त में बार-बार वृद्धि करना, आरोपणा प्रायश्चित्त कहलाता है जैसे- किसी मुनि को पाँच दिन के उपवास का प्रायश्चित्त दिया। उस प्रायश्चित्त तप को वहन करते हुए यदि मुनि के द्वारा पुनः उसी अपराध का सेवन कर लिया जाए तो उसके प्रायश्चित्त को 5 दिन, 10 दिन, 15 दिन यावत छ: माह तक बढ़ाना आरोपणा प्रायश्चित्त है। इसके पाँच भेद हैं- 1. प्रस्थापिका, 2. स्थापिता, 3. कृत्स्ना, 4. अकृत्स्ना और 5. हाडहडा-किसी मुनि के द्वारा अपनी गलती का प्रायश्चित्त मांगने पर तत्काल दिया जाने वाला प्रायश्चित्त)।53 4. प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त
किसी भी दोष का सेवन कर उसे अन्यथा कहना अथवा स्थूल दोष के स्थान पर अल्प दोष बताना परिकुंचना दोष कहलाता है। इस कपट वृत्ति का प्रायश्चित्त करना प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त है। इसके चार विकल्प हैं-54 1. द्रव्य प्रतिकुंचना- सचित्त की प्रतिसेवना कर यह कहना कि मैंने अचित्त
की प्रतिसेवना की है, यह द्रव्य संबंधी माया है। 2. क्षेत्र प्रतिकुंचना- जनपद में प्रतिसेवना कर ऐसा कहना कि मैंने मार्ग में __ प्रतिसेवना की है। 3. काल प्रतिकुंचना- सुर्भिक्ष में प्रतिसेवना करके कहे कि मैंने दुर्भिक्ष में . प्रतिसेवना की है। 4. भाव प्रतिकंचना- स्वस्थ अवस्था में प्रतिसेवना कर इस रूप में आलोचना करे कि मैंने ग्लान अवस्था में प्रतिसेवना की है। प्रायश्चित्त दान योग्य उपवास आदि तपों के अन्य
मानदंडों की तालिका व्यक्ति की शारीरिक आदि योग्यताएँ एवं अभिरुचि के आधार पर जैन धर्म में आत्म विकास के दो मार्गों का प्रतिपादन है- उत्सर्ग और अपवाद। समर्थ .