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30...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
अभिमान से किये कार्य का आवेश पूर्वक प्रायश्चित्त करना विंतिणा प्रतिसेवना है। जैसे- प्रतिकूल संयोग होने पर अग्नि में से तिंतिण शब्द करती हुई चिनगारियाँ निकलती है, वह द्रव्य तिंतिण है और आहार आदि नहीं मिलने पर अथवा अरुचिकर पदार्थ के उपलब्ध होने पर मानसिक व्याकुलता या झंझलाहट होना भावतिंतिण है। 7. सहसाकार प्रतिसेवना- आकस्मात कोई कार्य उपस्थित हो जाने पर
बिना सोचे समझे अनुचित कार्य कर लेना सहसाकार प्रतिसेवना है। 8. भय प्रतिसेवना- राजा, मनुष्य, चोर आदि के भय से जिन दोषों का
सेवन किया जाता है वह भय प्रतिसेवना है। जैसे- राजा के अभियोग से मार्ग आदि दिखा देना अथवा सिंह आदि हिंसक पशुओं के भय से
वृक्षारुढ होना आदि। 9. प्रद्वेष प्रतिसेवना- किसी के प्रति द्वेष या ईर्ष्या से (मिथ्या आरोप
लगाकर) संयम की विराधना करना प्रद्वेष प्रतिसेवना कहलाती है। 10. विमर्श प्रतिसेवना- नव दीक्षित शिष्य आदि की परीक्षा के लिए की
गयी संयम विराधना विमर्श प्रतिसेवना कहलाती है।
कल्पिका प्रतिसेवना के भेद- परिस्थितिवश निषिद्ध का आचरण करने पर भी संयम की विराधना नहीं होती उसे 'कल्पिक प्रतिसेवना' कहते हैं। यह प्रतिसेवना कारणों के भेद से निम्न चौबीस प्रकार की कही गई हैं- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, प्रवचन, समिति, गुप्ति, साधर्मिक-वात्सल्य, कुल, गण, संघ, आचार्य, असमर्थ, ग्लान, असन, वृद्ध, जल, अग्नि, चोर, श्वपद, भय, कान्तार, आपत्ति और व्यसन। इन 24 कारणों के उपस्थित होने पर यदि दोषों का सेवन किया जाता है तो वह कल्प प्रतिसेवना कहलाता है।50 ___ इस सम्बन्ध में अभिधानराजेन्द्रकोश में कहा गया है- जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञान-दर्शन आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से अपवाद या निषिद्ध मार्ग का आचरण भी करता है, तब भी वह मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है। वस्तुत: कर्मबन्ध तो जीव की भावनाओं पर आधारित होता है।51 2. संयोजना प्रायश्चित्त
मुनि के द्वारा आहार ग्रहण करते समय घी, गुड़ आदि का मिश्रित हो जाना अथवा शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड आदि ग्रहण करने पर जो दोष लगता है, उसे