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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद... 29
जीव के भाव अध्वयसाय दो प्रकार के हैं- कुशल और अकुशल अर्थात शुभ और अशुभ। जहाँ शुभ भावों से वस्तु का सेवन किया जाता है, वह कल्प प्रतिसेवना है और जहाँ अशुभ भावों से वस्तु का सेवन किया जाता है, वह दर्प प्रतिसेवना है। 47
राग-द्वेष पूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना (निषिद्ध आचरण) दर्पिका है एवं राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना कल्पिका कहलाती है और यह निर्दोष है। कल्पिका में संयम की आराधना है और दर्पिका में निश्चित ही संयम की विराधना है 148 दर्पिका प्रतिसेवना के भेद - दर्प प्रतिसेवना दस प्रकार की होती हैं- 49 1. दर्प प्रतिसेवना - अहंकारवश, आगम निषिद्ध, प्राणातिपात आदि जो दोष सेवन किये जाते हैं और जिससे संयम की विराधना होती है, उसे दर्प प्रतिसेवना कहते हैं।
2. प्रमाद प्रतिसेवना- मद्यपान, विषयाकांक्षा, कषाय, निद्रा, एवं विकथाइन पाँच प्रकार के प्रमादों के कारण होने वाली संयम की विराधना प्रमाद प्रतिसेवना कही जाती हैं।
3. अनाभोग प्रतिसेवना - अनुपयोग या अज्ञानवश जो संयम विराधना होती है, वह अनाभोग प्रतिसेवना है।
4. आतुर प्रतिसेवना - क्षुधा, पिपासा आदि कष्ट से व्याकुल होकर की जाने वाली संयम विराधना आतुर प्रतिसेवना कही जाती हैं।
5. आपत् प्रतिसेवना- किसी तरह की आपत्ति, उपद्रव या संकटकालीन परिस्थिति के होने पर निषिद्ध का सेवन करने से होने वाली संयम विराधना ‘आपत् प्रतिसेवना' कही जाती है। यह दोष निम्न चार प्रकार की आपत्तियों में लगता है
• द्रव्यापत्ति - निर्दोष आहार आदि न मिलने पर ।
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क्षेत्रापत्ति - अटवी, समुद्र तट आदि भयंकर स्थानों में रहने की स्थिति में।
• कालापत्ति - दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर।
• भावापत्ति- शरीर के रोगग्रस्त हो जाने पर ।
6. शङ्कित प्रतिसेवना - शुद्ध आहार आदि में किसी दोष की शंका हो जाने
पर भी उसे ग्रहण कर लेना शङ्कित प्रतिसेवना कहलाती है अथवा
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