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26...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण गीतार्थ आदि मुनि भी इसका व्यवहार कर सकते हैं। यदि अपराध एवं अपराधी विशिष्ट प्रकार के हो तो सम्पूर्ण संघ भी प्रायश्चित्त का विधान करता है। पारांचिक प्रायश्चित्त सामान्यतया संघ अनुमति से दिया जाता है।38 कौन, किस प्रायश्चित्त का अधिकारी? ___ पूर्वोक्त प्रायश्चित्त के दस प्रकारों में से प्रारम्भ के छह- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, कायोत्सर्ग और तप प्रायश्चित्त गृहस्थ एवं मुनि दोनों को दिये जाते हैं, सातवाँ छेद एवं आठवाँ मूल- ये दोनों प्रायश्चित्त सामान्य साध को देने का विधान है, नौवाँ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त उपाध्याय को
और दसवाँ पारांचिक प्रायश्चित्त सामर्थ्यवान आचार्य को देने का नियम है। इस प्रकार दसविध प्रायश्चित्त के अधिकारी भिन्न-भिन्न हैं। ___ व्यवहारभाष्य में आचारविशुद्धि की तरतमता के आधार पर निर्ग्रन्थ (मुनि) के पंचविध भेदों की अपेक्षा पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त के अधिकारी की चर्चा की गई है। निर्ग्रन्थ के पाँच प्रकार हैं- पुलाक, बकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक। इनके प्रायश्चित्त का क्रम इस प्रकार है39• पुलाक मुनि को प्रथम के छह प्रायश्चित्त दिये जाते हैं-आलोचना,
प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग और तप। • बकुश और प्रतिसेवनाकुशील- इन दोनों प्रकार के मुनियों को दस तथा
यथालंदकल्पी और जिनकल्पी के लिए प्रथम आठ प्रायश्चित्त विहित हैं। निम्रन्थ के लिए आलोचना और विवेक तथा पाँचवें स्नातक (केवली) के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त का विधान है। चारित्र धारण की अपेक्षा दसविध प्रायश्चित्त के अधिकारी निम्न हैं
चारित्र के पाँच प्रकार हैं- सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात।
• स्थविरकल्पी सामायिकधारी मुनि के छेद एवं मूल को छोड़कर आठ तथा छेदोपस्थापनीय मुनि के दस प्रायश्चित्त होते हैं।
• जिनकल्पी सामायिकधारी मुनि के तप पर्यंत छह तथा छेदोपस्थापनीय मुनि के मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्त होते हैं।
• स्थविरकल्पी परिहारविशुद्धि मुनि के लिए प्रथम आठ तथा जिनकल्पी परिहारविशुद्धि मुनि के लिए प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है।