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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...25 करने वाला हो, गण में फूट डालता हो अथवा उस तरह की योजना में निरत हो- उसे पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है, क्योंकि ये सभी पारांचिक प्रायश्चित्त संबंधी अपराध हैं।
यह प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य की तरह लिंग, क्षेत्र, काल एवं आचार की अपेक्षा चार प्रकार से दिया जाता है- द्रव्य की अपेक्षा उसे वसति, निवास, वाटक, वृन्द, नगर, ग्राम, देश, कुल, संघ, गण से बाहर करें तथा इनमें प्रवेश न करने दें। क्षेत्र की अपेक्षा जिसने जिस दोष का सेवन जहाँ किया हो उसे वहीं पारांचिक प्रायश्चित्त दें। काल की अपेक्षा पूर्व में जितने काल तक उसने पाप का सेवन किया हो उतने समय का उसे पारांचिक प्रायश्चित्त दें। आचार की अपेक्षा निर्धारित काल के बीच उससे तपस्या करवायें। इसी के साथ वह अपराधी मुनि मौनपूर्वक एकाकी रहे, ध्यान करे, फेंकने योग्य आहार को ग्रहण करे।।
दिगम्बर साहित्य में दसवें प्रायश्चित्त का नाम 'श्रद्धान' है। अनगारधर्मामृत के अनुसार जिस मुनि ने अपना धर्म छोड़कर मिथ्यात्व को अंगीकार कर लिया हो उसे दुबारा दीक्षा देना श्रद्धान प्रायश्चित्त है। इसको उपस्थापन भी कहते हैं।37
यहाँ ज्ञातव्य है कि उक्त प्रायश्चित्त के दस प्रकार व्यवहारनय से कहे गये हैं। परमार्थ से प्रायश्चित्त के भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं क्योंकि दोष प्रमाद से होता है और आगम में व्यक्त और अव्यक्त प्रमादों के असंख्यात लोक प्रमाण भेद कहे गये हैं अत: उनसे होने वाले अपराधों की विशुद्धि के भी उतने ही भेद होते हैं, किन्तु यहाँ सामूहिक रूप से प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। प्रायश्चित्त दान के अधिकारी ____ आगमिक टीकाओं के अनुसार प्रायश्चित्त देने का अधिकार निम्न साधुओं को है___ केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वी, दस पूर्वी, नौ पूर्वी, बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं निशीथसूत्र के ज्ञाता, भद्रबाहुस्वामीकृत नियुक्ति के धारक, निशीथ-कल्प और व्यवहार सूत्रों की पीठिका के धारक, आज्ञाव्यवहारी, धारणाव्यवहारी और जीतव्यवहारी- ये सभी प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होते हैं। इस दुषमकाल में उक्त अधिकारियों में से बहुत कम का अस्तित्व रह गया है। इस स्थिति में सामान्यतया प्रायश्चित्त दान का अधिकारी आचार्य को माना गया है यद्यपि परिस्थिति विशेष में श्रुतस्थविर, पर्यायस्थविर,--