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24...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष
पारांचिक के स्वरूप में मतान्तर है। सामान्य मत के अनुसार अमुक अपराधी भिक्ष को सदा के लिए संघ से बहिष्कृत कर देना पारांचिक प्रायश्चित्त है।
दूसरे मत के अनुसार अन्योन्यकारकता, मूढ़ता, दुष्टता और तीर्थंकर आदि की आशातना करने से तीव्र संक्लेश परिणामी श्रमण को जघन्यत: छह महीना और उत्कृष्टतः बारह वर्ष तक शास्त्रोक्त उपवास आदि तप द्वारा सम्पूर्ण अतिचारों से रहित करके पुनर्दीक्षा देना पारांचिक प्रायश्चित्त कहलाता है।33
तीसरे मत के अनुसार स्वलिंग भेदी (मुनि हत्या अथवा श्रमणी के साथ सम्भोग आदि करने वाला), चैत्यभेदी (जिन प्रतिमा या चैत्य का विनाश करने वाला), प्रवचन उपघाती जीव इस भव में और पर भव में चारित्र के अयोग्य होता है। यह परिभाषा प्रथम मत का समर्थन करती है इसलिए वह पारांचिक है।
आचार्य हरिभद्रसूरि अन्य मत का पोषण करते हुए कहते हैं कि परिणामों की विचित्रता से अथवा मोहनीय आदि कर्मों का निरूपक्रम बन्ध होने से इस भव में और पर भव में चारित्र प्राप्ति की अयोग्यता हो सकती है इसलिए अन्य आचार्यों का मत संगत ही है।34
इस प्रकार पारांचिक प्रायश्चित्त मुख्यतः दो प्रकार से दिया जाता है।
दोष- पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य कौन से अपराध हैं? इसकी चर्चा करते हुए विधिमार्गप्रपा35 एवं आचारदिनकर36 आदि में कहा गया है कि जो अत्यंत अहंकार एवं क्रोध के कारण हमेशा अरिहंत परमात्मा, आगम, आचार्य, श्रुतज्ञ, गुणीजनों की आशातना करे, स्वलिंग या परलिंग में स्थित होने पर भी दुष्ट प्रकृति से युक्त हो, अत्यधिक कषायी हो, इन्द्रिय विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखता हो, गुरु आज्ञा का लोप करने वाला हो, राजा की रानी (अग्रमहिषी) एवं गुरु की पत्नी को भोगने वाला हो, मुनि या राजा आदि का वध करने वाला हो, जिसके दोष जन-सामान्य में प्रकट हो चुके हों, स्त्यानगृद्धि-निद्रा के उदय से महादोष वाला हो, काम-भोग संबंधी प्रवृत्तियों में निरत हो, दुराचरण का आदर करने वाला हो, सप्त व्यसनों में संसक्त हो, परद्रव्य को हरण करने के लिए तैयार हो, परद्रोह करने वाला हो, नित्य पैशुन्य का सेवन करने वाला हो, अंगुष्ट-कुड्यम आदि प्रश्नशास्त्रों का बारम्बार प्रयोग