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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद... 23
निजगुणानुपस्थान प्रायश्चित्त होता है। इस प्रायश्चित्त के अपराधी मुनि को वसति से बत्तीस दण्ड दूर रखते हैं। वह बाल मुनियों को भी वन्दन करता है उसे कोई भी वन्दना नहीं करता, केवल गुरु से आलोचना कर सकता है। शेष जनों से वार्त्तालाप भी नहीं करता, पीछी उलटी रखता है। उसे जघन्य से पाँच-पाँच उपवास और उत्कृष्ट से छह मास का उपवास - बारह वर्ष पर्यन्त करना होता है ।
2. सपरगणोपस्थान- जो मुनि दर्प से उक्त दोषों का सेवन करता है उसे सपरगणोपस्थान प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस प्रायश्चित्त के अनुसार अपराधी मुनि को उसके संघ के आचार्य दूसरे संघ के आचार्य के पास भेज देते हैं। दूसरे संघ के आचार्य भी उसकी आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त नहीं देते, उसे तीसरे आचार्य के पास भेज देते हैं। इस तरह वह सात आचार्यों के पास जाता है। पुनः उसे इसी प्रकार लौटाया जाता है अर्थात सातवाँ आचार्य छठें के पास, छठा पाँचवें के पास क्रमशः वह प्रथम आचार्य के पास लौटता है तब प्रथम आचार्य उसे पूर्वोक्त प्रायश्चित्त देते हैं।
3. पारांचिक - जो तीर्थंकर, गणधर, आचार्य, प्रवचन, संघ आदि की आशातना करता है, राज्य विरुद्ध आचरण करता है, राजा की स्वीकृति के बिना उसके मन्त्री आदि को दीक्षा देता है, राजकुल की नारी का सेवन करता है और इसी प्रकार के अन्य कार्यों से धर्म को दूषित करता है उसको पारांचिक प्रायश्चित्त इस प्रकार दिया जाता है।
चतुर्विध श्रमण संघ एकत्र होकर उसे बुलाता है और कहता है यह पातकी महापापी है, ऐसी घोषणा करके अनुपस्थान प्रायश्चित्त देकर देश से निकाल देते हैं। वह भी अपने धर्म से रहित क्षेत्र में रहकर आचार्य के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को वहन करता है।
पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाला नियम से आचार्य ही होता है इसीलिए वह अन्य गणों में जाकर प्रायश्चित्त करता है। क्योंकि अपने गण में करने से शिष्यवर्ग यह जान सकते हैं कि गुरु ने अपराध किया है। 32
श्वेताम्बर परम्परा भी पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी आचार्य को माना गया है किन्तु वहाँ अपराधी आचार्य को हमेशा के लिए संघ से बहिष्कृत कर देते हैं।