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22...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण हो जाने पर अथवा उसके द्वारा प्रायश्चित्त पूर्ण करने के बाद पुन: दीक्षा दी जाती है। इस तरह इसमें अपराधी श्रमण को तत्काल संयम मार्ग के योग्य नहीं मानते हैं, बल्कि निश्चित अवधि के उपरान्त भी आचार्य एवं संघ की अनुमति होने पर ही प्रव्रजित करते हैं इसलिए इसका नाम अनवस्थाप्य है।
दोष- पंचाशकप्रकरण29, विधिमार्गप्रपा30, आचारदिनकर31 आदि के अनुसार साधर्मिक अथवा अन्य किसी व्यक्ति की उत्तम वस्तुओं की चोरी करने वाला हो, हस्त ताड़न कर्म करता हो, स्वपक्ष-परपक्ष में कलह करने वाला हो, अर्थादि का लेन-देन करता हो, द्रव्योपार्जन के लिए अष्टांगनिमित्त का कार्य करता हो, दुष्ट प्रकृति से युक्त हो, जीवों की हिंसा करने वाला हो, पारांचितप्रायश्चित्त का बिल्कुल भी भय न रखने वाला हो, दुष्ट प्रवृत्तियों का बारंबार सेवन करता हो, उसे लिंग, क्षेत्र, काल एवं तप का विचार कर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त दिया जाता है।
किसी ने वेश से दुष्कर्म किया हो उसका द्रव्य की अपेक्षा से मुनि वेश ले लेना चाहिए और भाव की अपेक्षा से पुनः उस कार्य को न करें- ऐसा निर्देश देना चाहिए। क्षेत्र से उसे भावलिंग धारण करवाते हुए अन्य क्षेत्र में स्थापित करें। काल से अन्यत्र रहकर जितने समय तक उसने पाप किया हो, उतने समय से भी अधिक उसे तप करवाएं। तप की अपेक्षा पाप अल्प मात्रा में हो तो छहमासी तप करवाएं। यदि परमात्मा की आशातना की हो तो एक वर्ष तक तप करवाएं। पाप के आधार पर अधिक से अधिक बारह वर्ष तक तप करवायें।
दिगम्बर परम्परा में नौवें प्रायश्चित्त का नाम परिहार है। यह प्रायश्चित्त अर्थतः अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के समान ही है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दिन आदि के विभाग पूर्वक अपराधी मुनि को संघ से बहिष्कृत कर देना परिहार प्रायश्चित्त है। इसके तीन प्रकार हैं- निजगुणानुपस्थान, सपरगणोपस्थान और पारंचिक। ___1. निजगुणानुपस्थान- अपने संघ से निर्वासित करने को निजगुणानुपस्थान कहते हैं। जो मुनि नौ या दस पूर्व का धारी है, जिसके आदि के तीन संहननों में से कोई एक संहनन है, परीषहजेता, दृढ़धर्मी एवं संसारभीरु है यद्यपि लोभवश अन्य साधुओं की वस्तुओं को चुराता है, मुनियों पर प्रहार करता है, अन्य से भी इस प्रकार के विरुद्ध आचरण करता है उसे