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________________ जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...21 7. अस्थिर - धैर्यबल न होने के कारण पुन: पुन: प्रतिसेवना करने वाला हो। 8. अबहुश्रुत - अनवस्थाप्य या पारांचित प्रायश्चित्त को प्राप्त होने पर भी __ अबहुश्रुतता के कारण उसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता हो।25 विधिमार्गप्रपा26 एवं आचारदिनकर27 आदि के उल्लेखानुसार पंचेन्द्रिय जीव का घात करने वाला, गर्व से मैथुन सेवन करने वाला, समस्त विषयों का आसक्ति पूर्ण परिभोग करने वाला, मूल एवं उत्तर गुणों में दोष लगाने वाला, तप सामर्थ्य का गर्व करने वाला, ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र घातक कार्यों में निमग्न रहने वाला, अवसन्न, पार्श्वस्थ, मूलकर्म जैसी दूषित प्रवृत्तियाँ करने वाला अपराधी मुनि मूल प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है। ऐसे अपराधी श्रमण को पुनर्दीक्षा देकर संघ में सबसे निम्न स्थान दिया जाता है। इसी भाँति जिस साधु को प्रायश्चित्त के रूप में जो तप दिया गया हो और वह तप से भ्रष्ट हो गया हो उसे तथा जो पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य हो उसे सर्वप्रथम पूर्व दीक्षा पर्याय का छेद करके मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार जो संयम से भ्रष्ट हों उन्हें भी मूल प्रायश्चित्त विहित है। सामान्यतया पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा एवं मैथुन संबंधी अपराध इस प्रायश्चित्त के कारण माने गये हैं। छेद एवं मूल प्रायश्चित्त में अंतर- यहाँ प्रश्न होता है कि छेद प्रायश्चित्त एवं मूल प्रायश्चित्त दोनों में दीक्षा पर्याय की हानि की जाती है तब इसमें मूल भेद क्या है? इसका समाधान यह है कि छेद में पाँच अहोरात्रि से लेकर अधिकतम छह माह तक की दीक्षा पर्याय का विच्छेद किया जाता है जबकि मूल में छह माह से अधिक दीक्षा पर्याय का छेद होता है। दूसरा अन्तर यह है कि छेद प्रायश्चित्त चिरघाती है, क्योंकि इसमें चिरकाल तक दीक्षा पर्याय का छेद होता है, किंतु मूल सद्योघाती है, क्योंकि यह शीघ्र ही दीक्षा पर्याय को समाप्त कर देता है।28 अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य दोष अवस्थाप्य का अर्थ है अवस्थित (स्थापित) करने योग्य और अनवस्थाप्य का अर्थ है अवस्थित नहीं करने योग्य। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार इस प्रायश्चित्त में अपराधी को प्रव्रज्या पथ से बहिष्कृत कर तत्काल पुनर्दीक्षा न देते हुए कुछ अवधि तक उसकी परीक्षा की जाती है। तत्पश्चात संघ के आश्वस्त
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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