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20...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण अहोरात्रि से कम और छह मास से अधिक अवधिवाले नहीं होते हैं। छेद के दो प्रकार हैं- 1. देशछेद और 2. सर्वछेद।
पाँच अहोरात्रि से लेकर छह मास पर्यन्त का प्रायश्चित्त देशछेद कहलाता है तथा मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त सर्व छेद के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि वे श्रमण पर्याय का युगपद् छेद करते हैं। इस प्रकार अंतिम तीन प्रायश्चित्तों का सर्व छेद में समावेश होने से प्रायश्चित्त के सात प्रकार होते हैं।24 ___ इस प्रायश्चित्त की विशिष्टता यह है कि इसके कारण श्रमण-संघ में वरीयता की दृष्टि से अपराधी का जो स्थान था, वह अपेक्षाकृत कम हो जाता है। साथ ही जो अपराधी तप के अयोग्य है, तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप प्रायश्चित्त का जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है। मूल प्रायश्चित्त योग्य दोष __पूर्व दीक्षा पर्याय को समाप्त कर नूतन दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है। इसमें पूर्व गृहीत व्रतों का पुन: से आरोपण किया जाता है एतदर्थ इसका नाम मूल प्रायश्चित्त है। ___ जिनशासन की अविच्छिन्न परम्परा में कुछ ऐसे दोष, जिनकी विमुक्ति के लिए अपराधी की पूर्व दीक्षा पर्याय का पूर्णत: छेदकर नयी प्रव्रज्या दी जाती है उन्हें मूल प्रायश्चित्त योग्य दोष कहा गया है।
भाष्यकार संघदासगणि ने निम्नोक्त आठ प्रकार के मुनि को मूल प्रायश्चित्त का भागी कहा है1. तप अतीत - छह माह पर्यन्त तपस्या करने पर भी शुद्धि न हो। 2. तपोबली - जो महान् तप से क्लांत नहीं होता अथवा छह मासिक तप
देने पर भी जो कहता है कि मैं अन्य तप करने में भी समर्थ हूँ। 3. अश्रद्धा - तप से पाप की शुद्धि नहीं होती, ऐसा विचार करने वाला हो। 4. पर्याय - छेद प्रायश्चित्त से शुद्धि न होने पर अथवा मैं रत्नाधिक हूँ, छेद
देने पर भी मेरा पर्याय दीर्घ है, ऐसा कहने वाला हो। 5. दुर्बल - जिसे तप प्रायश्चित्त अत्यधिक रूप में प्राप्त है, किन्तु वह उसे
वहन करने में असमर्थ हो। 6. अपरिणामी - छह मासिक प्रायश्चित्त से मेरी शुद्धि नहीं होगी, ऐसा
विचार वाला हो।