SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...19 लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, स्तन आदि को हाथ से हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्री अथवा पुरुष रूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहार आदि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभ-अलाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेलक होकर सचेलक के साथ रहना अथवा सचेलक होकर अचेलक के साथ रहना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। छेद प्रायश्चित्त के योग्य दोष ___अपराध की तरतमता के अनुसार अमुक दिन, पक्ष, मास या वर्ष की दीक्षा पर्याय में कमी करना छेद प्रायश्चित्त है। जिनशासन में कुछ अपराध उस स्तर के माने गये हैं जिनके दण्ड रूप में दीक्षा पर्याय की कमी करने से ही आत्मा की विशुद्धि होती है। आगमिक टीकाओं (व्यवहारभाष्य गा. 125-126) में तप प्रायश्चित्त योग्य जिन स्थानों का उल्लेख है यदि उनमें से किसी एक का भी निष्कारण तथा अग्लान अवस्था में निरन्तर तीन बार आचरण कर लिया जाता है तो वह छेद प्रायश्चित्त का भागी होता है। फलत: उसके लिए पाँच अहोरात्रि के संयम का छेद कर देते हैं। व्यवहारभाष्य (गा. 719) के अनुसार श्री संघ का विशिष्ट प्रयोजन उपस्थित होने पर भी जो गर्व से उस कार्य को नहीं करता वह छेद प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। __इसी तरह तपस्या का गर्व करने वाला, तप के प्रति श्रद्धा नहीं रखने वाला, तप से भी जिसका निग्रह न हो सके ऐसा, अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला, गुणों का त्याग करने वाला- छेद प्रायश्चित्त के योग्य होता है। जो पार्श्वस्थ आदि का संग करे, उसे तप प्रायश्चित्त के स्थान पर छेद प्रायश्चित्त देना चाहिए। आचार्य वर्धमानसूरि के मतानुसार उसे यावज्जीवन नीवि आदि तप करवाएँ। ___चूर्णिकार संघदासगणि ने तप और छेद के स्थान समान बतलाये हैं। उनके अनुसार दोनों में ही आदि के स्थान पाँच अहोरात्र है फिर पाँच-पाँच की वृद्धि करते हुए अंतिम स्थान छह महीना है। स्पष्ट है कि तप और छेद प्रायश्चित्त पाँच
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy