SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...27 • सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्री के लिए आलोचना और विवेकये दो प्रायश्चित्त होते हैं। मनःपर्यवज्ञानी एवं आचार्य आदि को ही प्रायश्चित्त देने का अधिकार क्यों? जैन परम्परा में प्रायश्चित्त देने का अधिकार कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों को ध्यान में रखकर किया गया है। मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, केवली, चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नवपूर्वी- ये प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं। अत: अपराधी के अध्यवसायों की हानि-वृद्धि को साक्षात जानकर समान अपराध होने पर भी राग-द्वेष की मात्रा के अनुरूप न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। परोक्षज्ञानी आचार्य अपराधी के भावों को पश्चात्ताप आदि बाह्य चिह्नों से जान लेते हैं जैसे- हा! मैंने गलत किया, गलत करवाया, गलत अनुमोदन किया, स्वार्थवश गलत को सही माना- इस प्रकार पश्चात्ताप की अग्नि में जलते हुए प्रकम्पित चित्त द्वारा मनोभावों को एवं राग-द्वेष की तरतमता को भलीभाँति जान लेते हैं और तदनुरूप न्यूनाधिक प्रायश्चित्त भी देते हैं। यदि राग-द्वेषात्मक अध्यवसायों की मन्दस्थिति में अपराध किया हो तो स्वल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। इससे भिन्न जो जिन प्ररूपित वचनों में अश्रद्धा करता है, आलोचना काल में हर्षित होता है उसे उत्तरोत्तर अधिक प्रायश्चित्त दिया जाता है।40. सामान्य श्रमण, अपराधी की यथार्थ स्थिति और अपराध काल की परिस्थिति को नहीं जान सकता है किन्तु आचार्यादि में धृतिबल, देहबल, श्रुतबल, तपोबल, संयमबल आदि अनेक विशिष्टताएँ होती हैं जिससे उनका अनुमान ज्ञान एवं अनुभव ज्ञान स्वर्ण की कसौटी पर खरा उतरे वैसा सिद्ध होता है। वर्तमान काल में कितने प्रायश्चित्त प्रवर्तित हैं? व्यवहारभाष्य के उल्लेखानुसार दस ता ता अणुसज्जंती, जा चोछसपुब्वि पढमसंघयणं । तेण परेणऽठविहं, जा तित्थं ताव बोधव्वं ।। चौदहपूर्वी एवं प्रथम संहननधारी मुनियों के शासन काल में दसों प्रायश्चित्त विद्यमान रहते हैं। उनका अभाव होने पर नौवाँ अनवस्थाप्य और दसवाँ पारांचिक ये दोनों अंतिम प्रायश्चित्त विच्छिन्न हो जाते हैं। इस कालखण्ड
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy