________________
जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...17 • स्वाध्याय, कायोत्सर्ग एवं प्रतिलेखना न करने पर, अष्टमी आदि पर्व तिथियों में तपयुक्त पौषध न करने पर तथा चैत्यवंदन न करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है।
• सूत्र पौरुषी और अर्थ पौरुषी न करने पर क्रमश: मासगुरु और मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है।
• चार काल की सूत्र पौरुषी (दिन और रात के प्रथम और अंतिम प्रहर में स्वाध्याय) न करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
• रात्रिक एवं दैवसिक प्रतिक्रमण करते समय जितने कायोत्सर्ग नहीं किए जाते, उतने मास का प्रायश्चित्त आता है।
• बैठे हुए या लेटे हुए तथा चद्दर ओढ़े हुए प्रतिक्रमण करने पर प्रत्येक में एक-एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आवश्यक अनुष्ठान सर्वथा नहीं करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
• उत्कृष्ट उपधि की प्रतिलेखना न करने पर चार लघुमास, मध्यम उपधि के लिए एक लघुमास और जघन्य उपधि के लिए पंचरात्रिक प्रायश्चित्त आता है।
• अष्टमी और पक्खी के दिन उपवास न करने पर क्रमश: मासलघु और मासगुरु, चातुर्मासिक बेला न करने पर चार लघुमास तथा सांवत्सरिक तेला न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
• इन पर्व तिथियों में चैत्यवंदन तथा अन्य उपाश्रय में रहे हुए मुनियों को वंदन न करने पर मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है।
• छह जीवनिकायों में से त्रसकाय के सिवाय पाँच स्थावर जीवों का संघट्टन-परितापन करने पर लघु प्रायश्चित्त और साधारण वनस्पतिकाय का संघट्टन-परितापन करने पर गुरु प्रायश्चित्त आता है। ___ • बेइन्द्रिय आदि त्रस जीवों का संघट्टन-परितापन करने पर लघु अथवा गुरु प्रायश्चित्त आता है तथा इन जीवों का विनाश करने पर मूल प्रायश्चित्त विहित है।
यहाँ तप प्रायश्चित्त संबंधी यह वर्णन स्थूल दोषों के आधार पर अति संक्षेप में किया गया है।
निशीथसूत्र, जो आगमिक वर्गीकरण के छेद ग्रन्थों में अपना अमूल्य स्थान रखता है और पूर्णरूप से तप प्रायश्चित्त योग्य दोषों एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त