SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...15 • बहिर्गमन के समय अथवा अन्यान्य कार्यों के प्रारंभ में वस्त्र आदि के स्खलित होने पर अथवा इसी प्रकार के अन्य अपशकुन होने पर (उनके प्रतिघात के निमित्त) आठ श्वासोश्वास (एक नमस्कार मन्त्र) का स्मरण अथवा दो श्लोकों का चिंतन करना चाहिए अथवा जितने समय में दो श्लोकों का चिंतन हो उतने समय तक तत्क्षण एकाग्र होकर कायोत्सर्ग लीन हो जायें। बहिर्गमन आदि के समय दूसरी बार स्खलना आदि अपशकुन होने पर सोलह श्वासोश्वास का और तीसरी बार अपशकुन होने पर बत्तीस श्वासोश्वास का कायोत्सर्ग करें। यदि चौथी बार भी अपशकुन हो जाये तो अपने स्थान को छोड़कर अन्यत्र नहीं जायें तथा अन्य कार्य भी प्रारंभ न करें। सभी कायोत्सर्गों में श्वासोश्वास संख्या की भिन्नता ही विशेष है। उच्छ्वास का अर्थ- शास्त्रीय विधि से 25, 27, 50, 100, 500 आदि श्वासोश्वास परिमाण के कायोत्सर्ग में उतनी बार श्वास लेते-छोड़ते हुए चित्त को स्थिर रखना चाहिए। अर्वाचीन विधि के अनुसार आठ श्वासोश्वास परिमाण के कायोत्सर्ग में एक बार नमस्कार मन्त्र का स्मरण और 25-27 आदि श्वासोश्वास परिणाम के कायोत्सर्ग में लोगस्ससूत्र का ध्यान किया जाता है। एक उच्छ्वास (श्वासोश्वास) एक पाद (चरण) जितना होता है। सामान्यतया श्लोक में चार चरण होते हैं। व्यवहारभाष्य के अनुसार पायसमा ऊसासा, कालपमाणेण होति नायव्वा । एतं काल प्रमाणं, काउसग्गे मुणेयव्वं ।। श्लोक के एक चरण के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना एक उच्छ्वास का काल होता है।21 यहाँ ज्ञातव्य है कि लोगस्ससूत्र के सात श्लोकों में 28 चरण हैं। यदि 25 या 27 उच्छ्वास का कायोत्सर्ग करते हैं तो 'चंदेसुनिम्मलयरा' तक पच्चीस और ‘सागरवरगंभीरा' तक 27 उच्छ्वास परिमाण जितना काल होता है इसलिए वहाँ तक के पाठ का स्मरण करते हैं। कायोत्सर्ग रूप में इन दोनों सूत्रों के स्मरण करने का हार्द यह है कि लोगस्ससूत्र और नवकार मन्त्र दोनों गणधर रचित शाश्वत सूत्र हैं तथा निर्धारित श्वासोश्वास कायोत्सर्ग के परिमाण वाले सूत्र हैं इसलिए इन्हीं को आधार मानते हुए 50, 100, 500 आदि श्वासोश्वास प्रमाण कायोत्सर्ग पूर्ण किया जाता है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy