________________
जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद... 13
विवेक प्रायश्चित्त योग्य दोष
आहार आदि के विषय में शुद्ध - अशुद्ध का विचार करते हुए उसका स्वीकार एवं परिहार करना विवेक है।
मुनि जीवन में कुछ दोष ऐसे होते हैं जिनका परिहार करने के लिए विवेक रखने की आवश्यकता होती है। आगमिक टीका साहित्य ( व्यवहारभाष्य-108 की टीका) एवं आगमेतर साहित्य ( विधिमार्गप्रपा, पृ. 80, आचारदिनकर, भा. 2, पृ. 242) के अनुसार विवेक प्रायश्चित्त के योग्य निम्न स्थान हैं
गीतार्थ मुनि शय्या - संस्तारक या आहार- पानी ग्रहण करे और कुछ देर पश्चात उन्हें यह ज्ञात हो जाये कि ये वस्तुएँ प्रासुक और अनेषणीय हैं तो उस दोषयुक्त शय्या आदि का त्याग कर देना चाहिए, यह विवेक प्रायश्चित्त है। इसी तरह आधाकर्मिक वसति में ठहरने पर किसी तरह से यह ज्ञात हो जाये कि यह उपाश्रय अकल्पनीय है तो उसे तुरन्त छोड़ देना विवेक प्रायश्चित्त है।
इसी तरह पर्वत, राहु, बादल, कुहासा और रजकण से सूर्य आवृत्त हो जाए और उस समय यदि मुनि अशठभाव से सूर्य उग गया है या सूर्य अस्त नहीं हुआ है - इस बुद्धि से भोजन-पानी ग्रहण कर ले, किन्तु बाद में उसे पता लग जाए कि सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के पश्चात आहार आदि ग्रहण किया है तो उस गृहीत अशन आदि का परित्याग कर देना विवेक प्रायश्चित्त है ।
प्रथम पौरुषी में गृहीत आहार को चतुर्थ पौरुषी तक रखा हो या भूलवश रह गया हो ऐसा कालातिक्रम भोजन - पानी तथा दो कोश के बाहर से लाया गया आहार आदि क्षेत्रातिक्रम कहलाता है। इन दोनों प्रकार के आहार का परिष्ठापन कर देना चाहिए, यह विवेक प्रायश्चित्त है।
अज्ञानतापूर्वक नियम विरुद्ध उपधि आदि का ग्रहण करने पर अथवा उपयुक्त समय को जाने बिना कारणवशात द्रव्यों का भोग-उपभोग करने पर विवेक प्रायश्चित्त करना चाहिए यानी विवेक बुद्धि से उन वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए।
व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) प्रायश्चित्त योग्य दोष
देह ममत्व का विसर्जन कर आत्मधर्म में स्थिर हो जाना कायोत्सर्ग है। हमारे द्वारा कुछ दोष उस श्रेणि के किये जाते हैं जिनकी विमुक्ति कायोत्सर्ग करने