SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12...प्रायश्चित्त विधि०का शास्त्रीय पर्यवेक्षण संघदासगणि विरचित व्यवहारभाष्य आदि के उल्लेखानुसार मैंने प्राणातिपात आदि दोषों का सेवन किया या नहीं? इस प्रकार आशंका होने पर, सहसा दोष सेवन होने पर, भय और रोग के कारण या आपदाओं के समय दोष सेवन होने पर, महाव्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार की आशंका होने पर, दूसरे महाव्रत के सम्बन्ध में मैंने झूठ बोला या नहीं?, तीसरे महाव्रत में मैंने अवग्रह (स्थान) की अनुज्ञा ली या नहीं?, चौथे महाव्रत के विषय में स्त्री का स्पर्श हुआ या नहीं?, पाँचवें महाव्रत के विषय में इंद्रिय विषयों के प्रति रागद्वेष किया या नहीं?, छठे रात्रि भोजन विरमणव्रत में लेप लगे पात्रों को धोया या नहीं? इस प्रकार जो दोष इंद्रियों द्वारा प्रकट होने पर अथवा अप्रकट रहने पर भी उनके प्रति सम्यक् अवधारण नहीं हुआ हो तो भावत: तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।17 इसी तरह इन्द्रिय विषयों का आसेवन कर उनके प्रति राग-द्वेष का एकपक्षीय निर्णय न कर सकने पर, सावधानी से संयमपूर्वक चलते हुए सहसा या भय के कारण पृथ्वी आदि जीवनिकाय की हिंसा होने पर, क्षुधा-पिपासा से अत्यंत पीड़ित होने पर अथवा आपतकालीन स्थिति में निषिद्ध आहार आदि का ग्रहण या उपभोग करने पर तदुभय प्रायश्चित्त आता है। इसी तरह असावधानी के कारण, गुरु आदि के अवरोध के कारण या संघ के बृहद कार्य के लिए व्रत के सर्वथा खण्डित होने पर या अतिचार लगने पर, दुष्ट भाषण, दुष्टचिंतन या दुष्टकाय रूप संयम विरोधी प्रवृत्तियाँ बार-बार करने पर, प्रमादवश अहोरात्रि के करणीय कर्तव्यों का विस्मरण होने पर तदुभय प्रायश्चित्त के द्वारा इनकी शुद्धि की जा सकती है। इस प्रायश्चित्त के विषय में एक शंका होती है कि जहाँ शास्त्र में कहा गया है कि आलोचना के बिना कोई भी प्रायश्चित्त कार्यकारी नहीं है वहाँ यह उल्लेख भी देखा जाता है कि कुछ दोष प्रतिक्रमण करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं तथा कुछ दोष तदुभय से निराकृत होते हैं। यह परस्पर विरुद्ध कथन कैसे? यदि कहा जाये कि प्रतिक्रमण के पहले आलोचना की जाती है तब तदुभय प्रायश्चित्त का कथन व्यर्थ हो जायेगा। इसका समाधान यह है कि सभी प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक ही होते हैं किन्तु अन्तर यह है कि प्रतिक्रमण गुरु आज्ञा से शिष्य करता है और तदुभय गुरु के द्वारा ही किया जाता है।
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy