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जैन वाङ्मय में प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेद...11
श्रोताओं से भी शुद्धाशुद्धि के विषय में सुनकर उसका विवेक कर सकता है। इसी प्रकार आलोचना से सूक्ष्म एवं विस्मृत दोष भी स्मरण में आ जाते हैं।12 प्रतिक्रमण योग्य दोष ___ कृत दोषों को दोष रूप में स्वीकार कर उन्हें दुबारा न करने का निश्चय करना प्रतिक्रमण कहलाता है। जिन दुष्कृत्यों की शुद्धि प्रतिक्रमण करने मात्र से हो जाती है उसे प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त कहते हैं।
व्यवहारभाष्य13 विधिमार्गप्रपा14 आचारदिनकर15 आदि के अनुसार प्रमाद के कारण समिति एवं गुप्ति का भंग होने पर, गुरु की आशातना होने पर, उनके प्रति विनय आदि का परिपालन न करने पर, इच्छाकार आदि दस सामाचारी का सम्यक पालन न करने पर, पूज्यों का समुचित आदर न करने पर, अल्प मिथ्याभाषण करने पर, सूक्ष्म अदत्तादान का सेवन करने पर, मुखवस्त्रिका का उपयोग रखे बिना छींक, खांसी एवं उबासी करने पर, दूसरों से वाद करने पर, संक्लेश उत्पन्न करने पर, पात्र लेप आदि का कार्य करने पर, प्रमादवश हास्य, कुचेष्टा, परनिन्दा एवं कौत्कुच्य करने पर, राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा एवं भक्तकथा करने पर, प्रमादवश कषाय एवं विषयों का सेवन करने पर, किसी के सम्बन्ध में यथार्थ से भिन्न, कम या अधिक कहने या सुनने पर, द्रव्य और भाव से संयम में स्खलना होने पर, असावधानी से या सहसाकार से व्रत का भंग होने पर, अल्पमात्र भी रागभाव, हास्य एवं भयसेवन करने पर, शोक, प्रदोष, कन्दर्प, वाद-विवाद और विकथा आदि करने पर, उत्तरगुण प्रतिसेवना रूप अपराध में अतिक्रम और व्यतिक्रम होने पर तथा अनजाने में मूलगुण- उत्तरगुण प्रतिसेवना रूप अतिक्रमण होने पर इन सभी दोषों के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त प्राप्त होता है यानी प्रतिक्रमण करने मात्र से ये दोष आत्म पृथक हो जाते हैं। तदुभय (आलोचना-प्रतिक्रमण) योग्य दोष
कृत दोषों की स्वीकारोक्ति आलोचना है और सेवित के लिए अपुनर्सेवन का संकल्प प्रतिक्रमण कहलाता है। जिन अपराधों की विमुक्ति आलोचना एवं प्रतिक्रमण दोनों क्रियाओं से होती है वह तदुभय प्रायश्चित्त कहा जाता है। व्यवहारभाष्य टीका के अनुसार पहले गुरु के पास आलोचना करना, फिर गुरु आज्ञा से 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना तदुभय प्रायश्चित्त है।16